SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० ध्यानशतक (७७-८२) । उनके स्वामियों का निर्देश धर्मध्यान के प्रसंग (६४) में किया गया है। मूलाचार में शुक्लध्यान को छोड़कर अन्य प्रार्त आदि किसी भी ध्यान के स्वामियों का निर्देश नहीं किया गया, जब कि ध्यानशतक में पृथक् पृथक् उन चारों ही ध्यानों के स्वामियों का निर्देश यथास्थान किया गया है (१८, २३, ६३, व ६४)। इन दोनों ग्रन्थों में ध्यान के वर्णन में जहां कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है वहां कुछ उसमें विशेषता भी उपलब्ध होती है। इसको देखते हुए भी एक ग्रन्थ का दूसरे की रचना में कुछ प्रभाव रहा है, ऐसा प्रतीत नहीं होता। ध्यानशतक व भगवती-आराधना भगवती-आराधना आचार्य शिवार्य (सम्भवत: २.३री शती) के द्वारा रची गई है। आराधक को लक्ष्य करके उसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप इन चार पाराधनाओं की प्ररूपणा की गई है। उनमें भी समाधिमरण के प्रमुख होने के कारण क्षपक के आश्रय से मरण के १७ भेदों में पण्डित-पण्डितमरण, सण्डित-मरण, बाल-पण्डितमरण, बालमरण और बाल-बालमरण इन पांच मरणभेदों का कथन किया गया है। वहां भक्तप्रत्याख्यान के भेदभूत सविचार भक्तप्रत्याख्यान के प्रसंग में यह कहा गया है कि जो संसार परिभ्रमण के दुःखों से डरता है वह संक्लेश के विनाशक चार प्रकार के धर्म और चार प्रकार के शुक्लध्यान का ही चिन्तन किया करता है। वह परीषहों से सन्तप्त होकर भी कभी आर्त और रोद्र इन दुर्व्यानों का चिन्तन नहीं करता (१६६९-७०)। इसी प्रसंग में वहां दो गाथाओं द्वारा क्रम से चार प्रकार के प्रार्त और चार प्रकार के रौद्रध्यान की संक्षेप में सूचना की गई है और तत्पश्चात् यह कहा गया है कि इन दोनों को उत्तम गति का प्रतिबन्धक जानकर क्षपक उनसे दूर रहता हुअा निरन्तर धर्म और शुक्ल इन दोनों ध्यानों में अपनी बुद्धि को लगाता है (१७०२-४) । • पश्चात् शुभ ध्यान में प्रवृत्त रहने की उपयोगिता को प्रगट करते हुए संक्षेप में ध्यान के परिकर की सूचना की गई है। तदनन्तर धर्मध्यान के लक्षण व आलम्बन का निर्देश करते हुए उसके प्राज्ञाविचयादि चारों भेदों का पृथक् पृथक् लक्षण कहा गया है (१७०५-१४)। धर्मध्यान के चतुर्थ भेदभूत संस्थानविचय के स्वरूप को दिखलाते हुए यहां भी मूलाचार के समान इस संस्थानविचय में अनुगत अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन की आवश्यकता प्रगट की गई है। प्रसंगवश यहां उन अध्रवादि बारह अनुप्रेक्षाओं का नामनिर्देश करके उनमें किस प्रकार क्या चिन्तन करना चाहिए, इसकी विस्तार से प्ररूपणा की गई है (१७१४-१८७३ )। आगे यह कहा गया है कि उक्त बारह अनुप्रेक्षायें धर्मध्यान की पालम्बनभूत हैं। ध्यान के मालम्बनों के प्राश्रय से मुनि उस ध्यान से च्युत नहीं होता। वाचना, पृच्छना; परिवर्तना और अनुप्रेक्षा ये उक्त धर्मध्यान के आलम्बन हैं। लोक धर्मध्यान के पालम्बनों से भरा हुआ है, ध्यान का इच्छुक क्षपक मन से जिस ओर देखता है वही उस धर्मध्यान का आलम्बन हो जाता है (१८७४-७६)। इस प्रकार से क्षपक जब धर्मध्यान का अतिक्रमण कर देता है तब वह अतिशय विशुद्ध लेश्या से युक्त होकर शुक्लध्यान को ध्याता है। आगे उस शुक्लध्यान के चार भेदों का निर्देश करके उनका पृथक पृथक् स्वरूप भी प्रगट किया गया है (१८७७-८६)।. आगे कहा गया है कि इस प्रकार से क्षपक जब एकाग्रचित्त होता हुमा ध्यान का प्राश्रय लेता है तब वह गुणश्रेणि पर प्रारूढ़ होकर बहुत अधिक कर्म की निर्जरा करता है। अन्त में ध्यान के माहात्म्य को दिखलाते हुए इस प्रकरण को समाप्त किया गया है। भगवती-आराधना में मार्जव, लघुता (निःसंगता), मार्दव और उपदेश इनको धर्म्यध्यान का लक्षण-परिचायक लिंग–कहा गया है। ये धर्म्यध्यानी के स्वभावतः हुआ करते हैं। अथवा उसकी
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy