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________________ ध्यानशतक इस प्रकार जैन दर्शन में स्वीकत उत्पादादि तीन के प्राश्रय से जैसे वस्तु को ब.थंचित परिणामी स्वीकार किया गया है लगभग उसी प्रकार योगदर्शन में भी शान्त, उदित और अव्यपदेश्य धर्मों के आश्रय से वस्तु को परिणामी स्वीकार किया गया है। वहां उत्पाद का समानार्थक शब्द उदित, व्यय का समानार्थक शान्त और ध्रौव्य का समानार्थक अव्यपदेश्य है। कैवल्य-जैन दर्शन के अनुसार मोह, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय हो जाने पर जीव के जब केवलज्ञान प्रगट हो जाता है तब उसे केवली कहा जाता है। केवली समस्त पदार्थों का ज्ञाता-द्रष्टा (सर्वज्ञ) होता हा वीतराग---राग-द्वेष से पूर्णतया रहित-होकर प्रात्मस्वरूप में अवस्थित होता है। केवली की इस अवस्था का नाम ही कैवल्य है। केवली के उपर्युक्त स्वरूप को मूलाचार (७-६७), आवश्यक नियुक्ति (८६ व १०७६), सर्वार्थसिद्धि (६.१३), तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (१०, ५.६, पृ. ३१६) और तत्त्वार्थवातिक (६, १३, १ व ६, १, २३) ग्रादि अनेक ग्रन्थों में प्रगट किया गया है। ___ योगसूत्र में कंबल्य का उल्लेख चार सूत्रों में हुआ है। सर्वप्रथम वहां सूत्र २-२५ में यह कहा गया है कि सम्यग्ज्ञान के द्वारा अविद्या का प्रभाव हो जाने से जो द्रष्टा (पुरुष) और दृश्य (बुद्धिसत्त्व) के संयोग का प्रभाव हो जाता है उसे हान कहते हैं। यही हान-दुःखरूप संसार का नाश-केवल पुरुष का कैवल्य कहलाता। आगे योग से प्रादुर्भत होने वाली अनेक प्रकार की विभूतियों का निर्देश करते हुए सूत्र ३-५० में यह कहा गया है कि रजोगुण के परिणामस्वरूप शोक के विनष्ट हो जाने पर चित्त की स्थिरता की कारणभूत जो विशोका सिद्धि'प्रगट होती है उसके प्रगट हो जाने पर जब योगी के वैराग्य उत्पन्न होता है तब उसके समस्त रागादि दोषों की कारणभूत अविद्या (मोह या मिथ्याज्ञान) के विनष्ट हो जाने से दुःख की प्रात्यन्तिकी निवत्तिरूप कैवल्य प्रादुर्भत होता है। उस समय सत्त्वादि गुणों के अधिकार के समाप्त हो जाने पर पुरुष (आत्मा) स्वरूपप्रतिष्ठित हो जाता है। तत्पश्चात् सूत्र ३-५५ में प्रकारान्तर से फिर यह कहा गया है कि सत्त्व और पुरुष दोनों की शुद्धि के समानता को प्राप्त हो जाने पर पुरुष के कैवल्य उत्पन्न होता है-वह मुक्ति को प्राप्त हो जाता है । समस्त कर्तृत्वविषयक अभिमान के निवृत्त हो जाने पर सत्त्व गुण का जो अपने कारण में प्रवेश होता है, इसका नाम सत्त्वशुद्धि तथा उपचरित भोक्तृत्व का जो अभाव हो जाता है, इसका नाम पुरुषशुद्धि है। आगे कैवल्य पाद में दस (४, २४-३३) सूत्रों द्वारा कैवल्य का विवेचन करते हुए कहा गया है कि योग और अपवर्ग रूप पुरुषार्थ के समाप्त हो जाने पर जो सत्त्वादि गुणों का प्रतिप्रसव-प्रतिपक्षभूत परिणाम के समाप्त हो जाने से विकार की अनुत्पत्ति है -- उसे कैवल्य कहा जाता है, अथवा चित्रशक्ति का जो स्वरूप मात्र में अवस्थान है उसे कैवल्य समझना चाहिये। १. स्वरूपावस्थितिः पुंसस्तदा प्रक्षीणकर्मणः । नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ॥ तत्त्वानु. २३४. २. देखो पीछे 'कैवल्य' शब्द, पृ. ३७. ३. विशोका विगतः सुखमयसत्त्वाभ्यासवशाच्छोको रजःपरिणामो यस्याः सा विशोका चेतसः स्थिति निबन्धिनी। यो. सू. भोज. वृत्ति १-३६. ४. यो. सू. (भोज. वृत्ति ३-५०.) ५. सत्त्व-पुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यम् । यो. सू. ३-५५ । (सत्त्वस्य सर्वकर्तृत्वाभिमाननिवृत्त्या स्वकारणेऽनुप्रवेशः शुद्धिः, पुरुषस्य शुद्धिरुपचरितभोगाभावः, इति द्वयोः समानायां शुद्धौ पुरुषस्य कैवल्यमुत्पद्यते । भोज. वृत्ति) ६. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्ते रिति । यो. सू. ४-३३ ।
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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