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________________ प्रस्तावना ३१ आगे योग में स्थिरता प्राप्त करने के लिए योगी को क्या क्या करना चाहिए, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उसे इन्द्रियों व अन्तःकरण को नियन्त्रित करके श्राशा और परिग्रह का परित्याग करते हुए एकान्त में अकेले स्थित होकर आत्मचिन्तन करना चाहिए। साथ ही उसे किसी पवित्र प्रदेश में स्थिर आसन को स्थापित कर व उसके ऊपर बैठकर मन को एकाग्र करते हुए चित्त व इन्द्रियों की प्रवृत्ति को स्वाधीन करना चाहिए। इस प्रकार योग में स्थित होकर वह स्थिरतापूर्वक शरीर, शिर और ग्रीवा को सम व निश्चल करता हुआ दिशाओं के अवलोकन को छोड़ देता है और अपनी नासिका के भाग पर दृष्टि रखता है' । जो योग्य प्राहार-विहार एवं कर्मों के विषय में उचित प्रवृत्ति करता है तथा यथायोग्य शयन व जागरण भी करता है उसके दुःखों का नष्ट करने वाला वह योग होता है । जिस समय स्वाधीन हुआ चित्त आत्मा में ही अवस्थित होता है तब समस्त कामनाओं की ओर से निःस्पृह हो जाने पर उस योगी को युक्त - योग से युक्त — कहा जाता है। जिस प्रकार वायु से रहित दीपक चलायमान नहीं होता उसी प्रकार मन को नियन्त्रित करके योग में स्थित हुआ योगी उस योग से चलायमान नहीं होता' । जानकर योगी को विरक्त चित्त से उसमें संलग्न होना चाहिए। वाली सभी इच्छाओं का पूर्णरूप से परित्याग करके तथा मन के धीरे-धीरे उपरत होता हुआ धीरतापूर्वक मन को श्रात्मस्वरूप में नहीं सोचता है । यदि योगी का मन अस्थिर है तो वह जिस जिस कारण से विषयों की ओर जाता है। उस उस की ओर से उसे रोककर आत्मा में नियन्त्रित करना चाहिए' । जिसको पाकर योगी अन्य किसी की प्राप्ति को अधिक महत्त्व नहीं देता, तथा जिसमें स्थित रहकर वह भारी दुख से भी विचलित नहीं होता, उसका नाम योग है । उसे समस्त दुःखों का नाशक साथ ही वह संकल्प से उत्पन्न होने द्वारा इन्द्रियसमूह को नियन्त्रित करके स्थित करता है और अन्य कुछ भी भगवद्गीता व जैन दर्शन गीता के अन्तर्गत उपर्युक्त विषयविवेचन को जब हम जैन दर्शन के साथ तुलनात्मक दृष्टि से देखते हैं तब हमें दोनों में बहुत कुछ समानता दिखती है। जैन दर्शन नयप्रधान है। उसमें द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा जहां श्रात्मा प्रादि को नित्य कहा गया है वहां पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा उन्हें अनित्य भी कहा गया है । गीता में शरीर की नश्वरता को दिखलाते हुए श्रात्मा को नित्य कहा गया है। आत्मा की यह नित्यता द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा जैन दर्शन को भी अभीष्ट है । यही कारण है जो वहां द्रव्यार्थिक नय अथवा निश्चय नय के आश्रय से जहां तहां श्रात्मा को नित्य व अविनश्वर कहा गया है । १ उदाहरणार्थ गीता में यह कहा गया है कि सबके शरीर में अवस्थित जीव या आत्मा जन्ममरण से रहित सदा अबध्य है- शाश्वत है, इसीलिए शरीर के नष्ट होने पर भी उसका वध नहीं किया जा सकता है । यथा न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । जो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २- २०. देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत । तस्मात् सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि । २- ३०. यही अभिप्राय जैन दर्शन में भी प्रकारान्तर से इस प्रकार प्रगट किया गया हैएग्रो मे सस्तो प्रप्पा णाण दंसणलक्खणो । १. भ. गी. ६, १०-१३. २. वही ६, १७-१६. ३. वही ६ २२ - २६.
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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