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________________ २५ ध्यानशतक और क्या करना है ? अभिप्राय यह है कि बाह्य विषयों की ओर से निःस्पृह होकर चित्त का जो श्रात्मस्वरूप में लीन होना है यही समाधि का लक्षण है' । योगसूत्र में उस ध्यान को ही समाधि कहा गया हैं जो ध्येय मात्र के निर्भासरूप होकर प्रत्ययात्मक स्वरूप से शून्य के समान हो जाता है- ध्याता, ध्येय और ध्यान इन तीनों के स्वरूप की कल्पना से रहित होकर निर्विकल्पक अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इस सूत्र की भोजदेव विरचित वृत्ति में 'सम्यक् प्रधीयते एकाग्रीक्रियते विक्षेपान् परिहृत्य मनो यत्र स समाधिः इस निरुक्ति के अनुसार निष्कर्षरूप में यह कहा गया है कि जिसमें सब प्रकार की अस्थिरता को छोड़कर मन को एकाग्र किया जाता है उसे समाधि कहते हैं। ध्यान श्रौर समाधि में यह भेद है कि ध्यान में ध्याता, ध्येय और ध्यान इन तीनों के स्वरूप का निर्भास होता है; पर समाधि में उनके स्वरूप का निर्भास नहीं होता । यह उक्त सूत्र में निर्दिष्ट यम-नियमादिरूप आठ योगांगों में अन्तिम है । विष्णुपुराण में समाधि के स्वरूप को दिखलाते हुए यह कहा गया है कि उसी परमात्मा के स्वरूप का जो विकल्प से रहित ग्रहण होता है उसका नाम समाधि है । इसकी सिद्धि ध्यान से होती है' । न्यायसूत्र की विश्वनाथ न्यायपंचानन विरचित वृत्ति में चित्त की जो अभीष्ट विषय में निष्ठता है उसे समाधि कहा गया है । समाधि का यह लक्षण एकाग्रचिन्तानिरोध जैसा ही है । योग - नियमसार में योग के स्वरूप का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि अपनी आत्मा को रागद्वेषादि के परिहारपूर्वक समस्त विकल्पों को छोड़ते हुए विपरीत अभिनिवेश से रहित जिनप्ररूपित तत्त्वों योजित करना, यह योग का लक्षण है' । युजेः समाधिवचनस्य योगः, इस निरुक्ति के अनुसार तत्त्वार्थवार्तिक में योग को समाधिपरक कहा गया है । तत्त्वानुशासन में अनेक पदार्थों का आलम्बन करने वाली चिन्ता को उन सबकी श्रोर से हटाकर किसी एक ही श्रभीष्ट अर्थ में रोकना, इसे योगी का योग कहा गया है । हरिभद्र सूरि ने उस सभी निर्मल धर्मव्यापार को योग कहा है जो मोक्ष से योजित करता है। उनके द्वारा योगबिन्दु में योग के ये पांच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय । इनमें उचित प्रवृत्ति से युक्त व्रती योगी जो मंत्री आदि भावनाओं से गर्भित जीवादि तत्त्वों का शास्त्राधार से चिन्तन करता है, उसका नाम अध्यात्मयोग है । चित्तवृत्ति के निरोधपूर्वक प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होने वाला जो उस अध्यात्मयोग का अभ्यास है उसे भावनायोग कहा जाता है" । स्थिर दीपक के समान किसी एक प्रशस्त वस्तु को विषय करने वाला जो उत्पादादिविषयक सूक्ष्म उपयोग से युक्त चित्त है उसे ध्यानयोग कहते हैं" । प्रविद्या के निमित्त से जो इष्ट-अनिष्ट की कल्पना होती है उसको दूर कर शुभ-अशुभ विषयों में जो समानता का भाव उदित होता है उसे समतायोग कहा जाता है" । १. जिमि लोणु विलिज्जइ पाणियहं तिमि जइ चित्तु विलिज्ज । समरसि हवइ जीवडा काई समाहि करिज्ज ।। पा. दो. १७६. 1 २. तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः । यो. सू. ३-३. ३. तस्यैव कल्पनाहीनं स्वरूपग्रहणं हि यत् । मनसा ध्याननिष्पाद्यं समाधिः सोऽभिधीयते ॥ ६, ७, १०. ४. समाधिश्चित्तस्याभिमतनिष्ठत्वम् । न्या. सू. वृत्ति १-३, पृ. १५३. ५. नि. सा. १३७-३६. ६. त. वा. ६, ९, १२. ७. तत्त्वानु. ६०-६१. ८. योगवि. १. ; योगबिन्दु ३१. ६. योगबि. ३५५. १०. यो. बि. ३६०. १९. वही ६२. १२ . वही ६४.
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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