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________________ प्रस्तावना पिण्डस्थ यादि के स्वरूप का विचार विविध ग्रन्थों में प्ररूपित उक्त पिण्डस्थ श्रादि के स्वरूप में जो कुछ विशेषता देखी जाती है उसका यहां कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है । पिण्डस्थ २१ भावसंग्रह (६२२) में जहां अपने शरीर में स्थित निर्मल गुणवाले श्रात्मप्रदेशों के समूह के चिन्तन at frustrature कहा गया है वहां ज्ञानसार ( १६-२० ) में अपने नाभि-कमल के मध्य में स्थित अरहन्त के स्वरूप के चिन्तन को पिण्डस्थध्यान कहते हुए भालतल, हृदय और कण्ठदेश में उसके ध्यान करने की प्रेरणा की गई हैं । अमितगति श्रावकाचार में पिण्डस्थध्यान का स्थान पदस्थ के बाद दूसरा है। यहां कर्मकालुष्य से रहित होकर अनन्त ज्ञान - दर्शनादि से विभूषित, नौ केवललब्धियों से सम्पन्न एवं पांच कल्याणकों को प्राप्त जिनेन्द्र के ध्यान को पिण्डस्थध्यान कहा गया है (१५, ५०-५३ ) । ज्ञानार्णव में उसे अधिक विकसित करते हुए उसमें पार्थिवी, प्राग्नेयी, श्वसना ( मारुती), वारुणी और तत्त्वरूपवती इन पांच धारणाओं का निर्देश करके उनका उपर्युक्त क्रम के अनुसार व्यवस्थित रूप में विचार किया गया है। इन धारणाओं के स्वरूप को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है - प्रथम पार्थिवी धारणा में योगी मध्यलोक के बराबर गम्भीर क्षीरसमुद्र, उसके मध्य में हजार पत्तोंवाले जम्बूद्वीप प्रमाण कमल, उसमें मेरु पर्वतस्वरूप कणिका, उसके ऊपर उन्नत सिंहासन और उसके ऊपर विराजमान राग-द्वेष से विरहित आत्मा का स्मरण करता है । दूसरी आग्नेयी धारणा में नाभिमण्डल में सोलह पत्तोंवाले कमल, उसके प्रत्येक पत्र पर प्रका रादि के क्रम से स्थित सोलह स्वरों और उसकी कणिका पर महामंत्र ( हैं ) की कल्पना की जाती है । फिर उस महामंत्र की रेफ से निकलती हुई अग्निकणों से संयुक्त ज्वालावाली घूमशिखा की कल्पना करता हुआ योगी निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होनेवाले उस ज्वालासमूह से हृदयस्थ अधोमुख प्राठ पत्तोंवाले कमल के साथ उस कमल को भस्म होता हुआ स्मरण करता है । तत्पश्चात् शरीर के वाहिर त्रिकोण अग्निमण्डल की कल्पना करके ज्वालासमूह से सुवर्ण जैसी कान्तिवाले वह्निपुर के साथ शरीर और उस कमल को भस्मसात् होता हुआ स्मरण करता है, फिर वह दाह्य के शेष न रहने से धीरे-धीरे उसी अग्नि को स्वयं शान्त होता हुआ देखता है । तीसरी श्वसना धारणा में योगी महासमुद्र को क्षुब्ध करके देवालय को शब्दायमान करनेवाली उस प्रबल पवन का स्मरण करता है जो पृथ्वीतल में प्रविष्ट होती हुई भस्मसात् हुए उस शरीर आदि की भस्म को उड़ाकर स्वयं शान्त हो जाती है । चौथी वारुणी धारणा में योगी इन्द्रधनुष और विजली के साथ गरजते हुए मेघों के समूह से ब्याप्त ऐसे प्राकाश का स्मरण करता है जो निरन्तर बड़ी-बड़ी बूंदों से वर्षा करके जलप्रवाह के द्वारा अर्धचन्द्राकार वरुणपुर को तैराता हुआ पूर्वोक्त शरीर से उत्पन्न उस भस्म को धो डालता है । अन्तिम तत्त्वरूपवती धारणा में योगी सप्तधातुमय शरीर से रहित सर्वज्ञ सदृश अपने शरीर के मध्यगत पुरुषाकार उस आत्मा का स्मरण करता है जो समस्त कर्मकलंक से रहित होकर दिव्य अतिशयों से युक्त होती हुई सिंहासन पर विराजमान है । उक्त पांच घारणाओं में से ये तीन धारणायें क्रम से तत्त्वानुशासन में भी उपलब्ध होती हैंमारुती, तेजसी और श्राप्या । ये क्रम से श्वसना, श्राग्नेयी और वारुणी के पर्याय नाम है । तत्त्वानुशासन १. पार्थिवी ४-८, पृ. ३८१-८२ श्राग्नेयी १० - १६, पृ. ३८२-८३ श्वसना २०-२३, पृ. ३८४-८५; तत्त्वरूपवती २६-३१, पृ. ३८५.
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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