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________________ १६ ध्यानशतक सूक्ष्मसाम्पराय व क्षीणमोह इन गुणस्थानों में होता है' । द्वितीय शुक्लध्यान के स्वामी का कुछ स्पष्ट उल्लेख किया गया नहीं दिखा। सम्भवतः उसे सामान्य से पूर्ववेदी - क्षीणमोह के - श्रथवा योगनिरोध के पूर्व केवली के कहा गया है । केवली जब तीनों बादर योगों को छोड़कर सूक्ष्मकाययोग का श्रालम्बन करते हैं तब वे शुक्लसामान्य से तृतीय और विशेषरूप से -- परमशुक्ल की अपेक्षा - प्रथम सूक्ष्मक्रियापतिपाती शुक्लध्यान पर आरूढ़ होने के योग्य होते हैं । यह शुक्लध्यान समुद्घात क्रिया के पूर्ण होने तक होता है । तत्पश्चात् द्वितीय परमशुक्ल - समुच्छिन्न क्रियानिवर्ती शुक्लध्यान - श्रात्मप्रदेशपरिस्पन्दन, योग और प्राणादि कर्मों के विनष्ट हो जाने पर प्रयोग केवली के होता I श्रादिपुराण में भी हरिवंशपुराण के समान शुक्लध्यान के शुक्ल प्रोप परमशुक्ल ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । इनमें छद्मस्थों के उपशान्तमोह और क्षीणमोह के शुक्ल और केवलियों के होता है। - परमशुक्ल तत्त्वानुशासन में शुक्लध्यान का स्वरूप मात्र निर्दिष्ट किया गया है, उसके भेदों व स्वामियों श्रादि की कुछ चर्चा नहीं को गई है (२२१-२२) । ज्ञानार्णव में प्रादिपुराण के समान प्रथम दो शुक्लध्यान छद्मस्थ योगियों के और अन्तिम दो दोषों से निर्मुक्त केवलज्ञानियों के निर्दिष्ट किये गये हैं । ध्यानस्तव में अतिशय विशुद्धि को प्राप्त धर्म्यध्यान को ही शुक्लध्यान कहा गया है जो दोनों श्रेणियों में — उपशमश्रेणि के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय तथा क्षपकश्रेणि के भी इन्हीं तीन गुणस्थानों में होता है (१६) । आगे शुक्लध्यान के चार भेदों का निर्देश करते हुए उनमें पृथक्त्ववितर्क सविचार और एकत्बवितर्क श्रविचार इन दो शुक्लध्यानों का अस्तित्व क्रम से तीन योगों वाले और एक योगवाले पूर्ववेदी ( श्रुतकेवली) के प्रगट किया गया है । तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान सूक्ष्म शरीर की क्रिया से युक्त सयोग केवली के श्रौर चौथा समुच्छिन्न क्रियानिवर्तक शुक्लध्यान समस्त श्रात्मप्रदेशों की स्थिरता से युक्त प्रयोग केवली के होता है ( १७-२१) । उपसंहार— तत्वार्थ सूत्र आदि अधिकांश ग्रन्थों में सामान्य से यह निर्देश किया गया है कि चारों प्रकार का ध्यान छठे गुणस्थान तक हो सकता है । परन्तु सर्वार्थसिद्धि श्रादि कुछ ग्रन्थों में इतना विशेष कहा गया है कि निदान छठे गुणस्थान में नहीं होता । १. शुक्लं तत् प्रथमं शुक्लतर - लेश्याबलाश्रयम् । श्रेणीद्वयगुणस्थानं क्षयोशमभावकम् । ह्. पु. ५४-६३. २. ह. पु. ५६, ६४-६८. ३. अन्तर्मुहूर्त शेषायुः स यदा भवतीश्वरः । तत्तुल्यस्थितिवेद्यादित्रितयश्च तदा पुनः ।। समस्तं वाङ्मनोयोगं काययोगं च बादरम् । प्राप्यालम्ब्य सूक्ष्मं तु काययोगं स्वभावतः ॥ तृतीयं शुक्लं सामान्यात् प्रथमं तु विशेषतः । सूक्ष्मक्रियाप्रतीपाति ध्यानमस्कन्तुमर्हति ।। ह. पु. ५६, ६६-७१. ४, ह. पु. ५६, ७२-७७. ५. शुक्लं परमशुक्लं चेत्याम्नाये तद् द्विधोदितम् । छद्मस्थस्वामिकं पूर्वं परं केवलिनां मतम् ।। श्रा. पु. २१-१६७. ६. छद्मस्थयोगिनामाद्ये द्वे तु शुक्ले प्रकीर्तिते । द्वे स्वन्त्ये क्षीणदोषाणां केवलज्ञानचक्षुषाम् ॥ ज्ञाना. ७, पृ. ४३१.
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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