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________________ [७६ २० ध्यानस्तवः विपरीत अभिमान दुराग्रह या वैसे अभिप्राय-से रहित जो प्रात्मा का स्वरूप है वही पदार्थों में श्रेष्ठ है। उस प्रात्मस्वरूप का श्रद्धान करना, इसे सम्यग्दर्शन कहते हैं ॥७॥ प्रागे ३ श्लोकों में उस सम्यग्दर्शन के दो भेदों का निर्देश करते हुए उनका स्वरूप कहा जाता हैतन्निसर्गात् पदार्थेषु कस्याप्यधिगमात्तथा । जीवस्योत्पद्यते देव द्वधैवं देशना तव ॥७९॥ निसर्गः स्वरूपं स्यात् स्वकर्मोपशमादियुक् । तमेवापेक्ष्य यज्जातं दर्शनं तन्निसर्गजम् ॥८० परेषामुपदेशं तु यदपेक्ष्य प्रजायते । त्वयाधिगमजं देव तच्छ्रद्धानमुदाहृतम् ॥१॥ वह सम्यग्दर्शन किसी जीव के निसर्ग से-परोपदेश के विना स्वभावतः-तथा किसी के पदार्थविषयक अधिगम (ज्ञान) से उत्पन्न होता है। इस प्रकार से हे देव ! आप का दो प्रकार का उपदेश है। अपने कर्मों के-प्रनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार एवं मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये तीन दर्शनमोहनीय इस प्रकार सात कर्मप्रकृतियों के-उपशम प्रादि से युक्त जो निज स्वरूप है उसका नाम निसर्ग है। उसी निसर्ग की अपेक्षा करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे निसर्गज कहा जाता है। जो तत्त्वश्रद्धान दूसरों के उपदेश की अपेक्षा करके उत्पन्न होता है उसे हे देव ! प्रापने अधिगमज सम्यग्दर्शन कहा है ॥ विवेचन-इसका अभिप्राय यह है कि इन दोनों सम्यग्दर्शनों में पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के उपशम प्रादि के समान रूप से रहने पर भी जो तत्वश्रद्धान दूसरे के उपदेश के विना पूर्व संस्कार से उत्पन्न होता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन कहलाता है तथा जो तत्त्वश्रद्धान दूसरे के उपदेश के प्राश्रय से उत्पन्न होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन समझना चाहिये । यह इन दोनों सम्यग्दर्शनों में भेद है ॥७९-८१॥ अब मागे तीन इलोकों में प्रकारान्तर से उक्त सम्यग्दर्शन के अन्य दो और तीन भेदों का निर्देश करते हुए सराग और वीतराग सम्यग्दर्शन का स्वरूप कहा जाता है अथ चैव द्विधा प्रोक्तं तत्कर्मक्षयकारणम् । सरागाधारमेकं स्याद्वीतरागाश्रयं परम् ॥२॥ प्रशमादथ संवेगात् कृपातोऽप्यास्तिकत्वतः। जीवस्य व्यक्तिमायाति तत् सरागस्य दर्शनम् ॥ पुंसो विशुद्धिमात्र तु वीतरागाश्रयं मतम् । द्वधेत्युक्ता [क्त्वा] त्या देव धाप्युक्तमदस्तथा ॥ कर्मक्षय का कारणभूत वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है-एक सरागाश्रित और दूसरा वीतरागाश्रित । जो सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन गुणों के प्राश्रय से जीव के प्रगट होता है वह सराग जीव का दर्शन (सरागसम्यग्दर्शन) कहलाता है और जो जीव की विशद्धि मात्र स्वरूप सम्यग्दर्शन है वह वीतरागाश्रित सम्यग्दर्शन माना गया है। इस तरह दो प्रकार का कहकर उसे तीन प्रकार का भी कहा गया है ॥ विवेचन-सम्यग्दर्शन के अन्य भी दो भेद हैं-सरागसम्यग्दर्शन और वीतरागसम्यग्दर्शन । राग युक्त जीव के तत्त्वश्रद्धान को सरागसम्यग्दर्शन और रागभाव से रहित जीव के तत्त्वश्रद्धान को वीतरागसम्यग्दर्शन कहा जाता है। इनमें प्रथम सरागसम्यग्दर्शन के परिचायक ये चार चिह्न हैं-प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य । इनमें क्रोधादि कषायों के उपशमन का नाम प्रशम है। संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति होने के साथ जो धर्म में अनुराग होता है उसे संवेग कहते हैं। दीन-दुखी व सन्मार्ग से भ्रष्ट होते हुए जीवों के विषय में जो दया परिणति होती है उसे अनुकम्पा कहा जाता है। सर्वज्ञ वीतराग के द्वारा जैसा जीवादि तत्त्वों का स्वरूप कहा गया है उसको उसी प्रकार मानकर दढ़ श्रद्धा रखना, इसका नाम प्रास्तिक्य है । ये गुण उक्त सम्यग्दर्शन के अनुमापक हैं ॥८२-८४॥ अब मागे चार श्लोकों में उसके पूर्वनिर्दिष्ट तीन भेदों को कहा गया है
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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