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________________ ध्यानस्तवः [७०द्रव्यं वा योऽथ पर्याय निश्चिनोति यथास्थितम् । नयश्च निश्चयः प्रोक्तस्ततोऽन्यो व्यावहारिकः ॥७०॥ अभिन्नकर्तृकर्मादिगोचरो निश्चयोऽथवा । व्यवहारः पुनर्देव निर्दिष्टस्तद्विलक्षणः ॥७१॥ द्रव्यार्थपर्ययार्थभ्यां पुनर्देव नयो मतः। सर्वे श्रुतविकल्पास्ते ग्राह्यभेदादनेकधा ॥७२॥ द्रव्य अथवा पर्याय को विषय करने वाला जो ज्ञाता का अभिप्राय होता है उसे नय कहते हैं । वह हे महन! आपके प्रागम में दो प्रकार कहा गया है-निश्चयनय और व्यवहारनय । जो यथावस्थित द्रव्य अथवा पर्याय का निश्चय करता है उसे निश्चय नय कहा गया है। उससे भिन्न व्यावहारिक-लोकव्यवहार में काम आने वाला-व्यवहार नय है। अथवा हे देव ! जो कर्ता व कर्म प्रादि कारकों में भेद न करके वस्तु को विषय करता है उसे निश्चयनय कहा गया है। व्यवहार नय उससे भिन्न है। तथा हे देव ! द्रव्यार्थ और पर्यायार्थ से-द्रव्य को विषय करने और पर्याय को विषय करने के कारणभी नय दो प्रकार का माना गया है। श्रुत के भेदभूत वे सब नय ग्राह्यभेद से-अपने द्वारा ग्रहण करने योग्य विषय के भेद से-अनेक भेदरूप हैं। विवेचन-वस्तु अनेकधर्मात्मक है। उनमें से ज्ञाता को जब जिस धर्म की अपेक्षा रहती है तब वह उसके लिए मुख्य और शेष धर्म गौण हो जाते हैं। यथा-सुवर्णमय कड़ों को तोड़कर जब उससे मुकुट बनाया जाता है तब अपेक्षाकृत उसमें नित्यता व अनित्यता दोनों धर्म विद्यमान रहते हैं। कड़ों को तोड़कर मुकुट के बनाये जाने पर भी दोनों में सुवर्णरूपता तदवस्थ रही, उसका विनाश नहीं हुमा, यही द्रव्यस्वरूप से मकुट की नित्यता है। पर कड़ों रूप अवस्था से वह मुकुटरूप अवस्था को प्राप्त हमा है, प्रतः उसमें पर्याय की अपेक्षा अनित्यता भी है। इसी प्रकार एक-अनेक, शुद्ध-प्रशद्ध पौर भिन्न-भिन्न प्रादि परस्पर विरुद्ध दिखने वाले धर्मों का भी एक ही वस्तु में अपेक्षाकृत अस्तित्व समझना चाहिए। इस प्रकार का जो विवक्षावश ज्ञाता का अभिप्राय रहता है, इसी का नाम नय है। वह नय निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। जो नय यथावस्थित द्रव्य अथवा पर्याय का निश्चय करता है उसे निश्चय नय कहा जाता है। इस प्रकार के लक्षण से ग्रन्थकार को सम्भवतः नंगम-संग्रह प्रावि सातों नय निश्चय के रूप में अभीष्ट रहे हैं। इसके विपरीत जो यथावस्थितरूप में द्रव्य या पर्याय को ग्रहण न करके अन्यथारूप में उसे ग्रहण करता है उसका नाम व्यवहार नय है। जैसे-सत को देते हुए यह कहना कि वस्त्र बुनकर लाओ। इस प्रकार के कथन में यथावस्थित वस्तु का ग्रहण नहीं रहा । कारण यह कि सूत के पृथक्-पृथक् अंशों के बुनने पर वस्त्र निर्मित होता है, वस्त्र नहीं बुना जाता। इस प्रकार यथार्थता के न रहने पर भी चूंकि सूत देने वाले का अभिप्राय सूत को बुनकर वस्त्र बनाने का ही अभिप्राय रहता है, अतएव यह व्यवहार नय कहलाता है। इसी प्रकार प्राटा पिसाना है, भात बनाओ, तेल की शीशी लामो; इत्यादि व्यवहार नय के अन्य उदाहरण भी समझना चाहिए। आगे ग्रन्थकार ने 'अथवा' कहकर प्राध्यात्मिक दृष्टि को लक्ष्य में रखते हुए प्रकारन्तर से भी उक्त निश्चय और व्यहार नयों का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है-जो कर्ता और कर्म प्रादि का भेद न करके शुद्ध द्रव्य मात्र को ग्रहण करता है वह निश्चय नय कहलाता है। जिस प्रकार मिट्री स्वयं घट रूप परिणत होती है, अतः निश्चय नय की दृष्टि से यह नहीं कहा जा सकता कि कुम्हार ने देवदत्त के लिए मिट्टी से घट को बनाया है। इस नय की दृष्टि से प्रात्मा शुद्ध ज्ञायक स्वभाव है, वह कर्म का कर्ता व भोक्ता मादि नहीं है। इसके विपरीत व्यवहार नय कर्ता व कर्म प्रादि के भेद को स्वीकार करता है। जैसे-जीव को राग-द्वषादि का कर्ता मानना। प्रकारान्तर से नय के दो भेद अन्य भी हैं-द्रव्याथिक नय और पर्यायाथिक नय। जिसका अर्थ (प्रयोजन या विषय) द्रव्य ही है, अर्थात् जो मुख्यता से द्रव्य को ही ग्रहण करता है, उसे द्रव्याथिक नय कहते हैं जैसे प्रात्मा सर्वथा शुद्ध व कर्म-मल से रहित है। जो पर्याय को प्रमुखता से वस्तु को ग्रहण
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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