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________________ -३७] रूपस्थ-रूपातीतध्यानयोः स्वरूपम् ११ में पंचनमस्कार मंत्र के पदों का असि प्रा उ सा प्रादि परमेष्ठिवाचक प्रक्षरों का तथा ॐ ह्रीं प्रादि बीजाक्षरों का ध्यान किया जाता है || २६ ॥ अब रूपस्थध्यान का स्वरूप कहा जाता है तव नामाक्षरं शुभ्रं प्रतिबिम्बं च योगिनः । ध्यायतो भिन्नमीशेदं ध्यानं रूपस्थमीडितम् ॥ हे ईश ! जो योगी तुम्हारे नामाक्षर का और भिन्न धवल प्रतिबिम्ब का ध्यान करता है उसके रूपस्थ ध्यान कहा जाता है ||३०|| प्रागे प्रकारान्तर से पुन: उसी रूपस्थध्यान का स्वरूप कहा जाता हैशुद्धं शुभ्रं स्वतो भिन्नं प्रातिहार्यादिभूषितम् । देव स्वदेहमर्हन्तं रूपस्थं ध्यान [य] तोऽथवा ॥ प्रादि से विभूषित श्ररहन्त अथवा हे देव ! जो शुद्ध, धवल, श्रात्मा से भिन्न और प्रातिहार्य जैसे अपने शरीर का ध्यान करता है उसके रूपस्थध्यान होता है ॥ ३१ ॥ अब रुपातीत ध्यान का स्वरूप कहा जाता है रुपातीतं भवेत्तस्य यस्त्वां ध्यायति शुद्धधीः । श्रात्मस्थं देहतो भिन्नं देहमात्र चिदात्मकम् ॥३२॥ हे देव ! जो निर्मलबुद्धि जीव अपने ही श्रात्मा में स्थित, शरीर से भिन्न और शरीर से रहित होकर भी उस छोड़े हुए शरीर के प्रमाण में अवस्थित चेतनस्वरूप ऐसे प्रापका ध्यान करता है उसके रुपातीत ध्यान होता है। अभिप्राय यह है कि निर्मल स्फटिक मणि में प्रतिबिम्बित जिनरूप के समान समस्त कर्मों और शरीर से भी रहित हुए सिद्ध परमात्मास्वरूप अपने श्रात्मा का जो चिन्तन किया जाता है उसे रूपातीतध्यान कहा जाता ॥३२॥ श्रागे चार श्लोकों में इसी रूपातीत ध्यान को स्पष्ट किया जाता है संख्यातीत प्रदेशस्थं ज्ञानदर्शनलक्षणम् । कर्तारं चानुभोक्तारममूर्तं च सदात्मकम् ॥३३ कथं चिन्नित्यमेकं च शुद्धं सक्रियमेव च । न रुष्यन्तं न तुष्यन्तमुदासीनस्वभावकम् ॥३४ कर्मले पविनिर्मुक्तमूर्ध्व व्रज्यास्वभावकम् । स्वसंवेद्यं विभुं सिद्धं सर्वसंकल्पवजितम् ॥३५ परमात्मानमात्मानं ध्यायतो ध्यानमुत्तमम् । रूपातीतमिदं देव निश्चितं मोक्षकारणम् ॥३६ जो विशुद्ध प्रात्मा असंख्यात प्रदेशों में स्थित है, ज्ञान-दर्शनस्वरूप है, कर्ता व भोक्ता है, रूपरसादिस्वरूप मूर्ति से रहित होकर प्रमूर्तिक है; उत्पाद, व्यय व श्रीव्यस्वरूप है; कथंचित् नित्म, एक व शुद्ध है; क्रिया से सहित है; जो न रुष्ट होता है और न सन्तुष्ट भी होता है, किन्तु उदासीन स्वभाव वाला है; कर्मरूप लेप से रहित है, ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है, जो स्वकीय संवेदन का विषय होकर व्यापक व सिद्ध है, तथा जो समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित है; ऐसे परमात्मस्वरूप ग्रात्मा का जो ध्यान करता है उसके यह उत्कृष्ट रूपातीत ध्यान होता है । हे देव ! यह ध्यान निश्चय से मोक्ष कर कारण है ॥३३-३६॥ आगे यह दिखलाते हैं कि बहिरात्मा जीव उस शुद्ध परमात्मा को नहीं देख सकता हैदेहेन्द्रियमनोवाक्षु ममाहंकार बुद्धिमान् । बहिरात्मा न संपश्येद् देव त्वां स बहिर्मुखः ||३७ शरीर, इन्द्रिय, मन और वचन इनके विषय में ममकार और ग्रहंकार बुद्धि रखने वाला वह बहिरात्मा जीव बहिर्मुख होने से पर को अपना समझने के कारण - हे देव ! आपको नहीं देख सकता है ॥ विवेचन - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के भेद से जीव तीन प्रकार के हैं। उनमें जिसे तत्व प्रतत्त्व की पहिचान नहीं होती वह बहिरात्मा कहलाता है । वह प्रवेव को देव, कुगुरु को 'गुरु' और कुत्सित धर्म को धर्म मानता है तथा जड़ शरीर व इन्द्रिय आदि जो चेतन मात्मा से भिन्न हैं उन्हें भी
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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