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________________ -२२] शुक्लध्यानविचारः विवेचन-शुक्लध्यान के चार भेदों में प्रथम शुक्लध्यान का नाम पृथक्त्ववितर्क सविचार है। पृथक्त्व का अर्थ भेद है। प्रथम शक्लध्यानी द्रव्य-पर्याय अथवा उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य रूप अवस्थामों का भेदपूर्वक चिन्तन किया करता है। अर्थ, व्यंजन और योग के परिवर्तन को वीचार कहते हैं। उक्त प्रथम शुक्लध्यानी द्रव्य-पर्यायस्वरूप अर्थ में कभी द्रव्य का और कभी द्रव्य को छोड़कर पर्याय का चिन्तन करता है। व्यंजन का अर्थ शब्द है, वह जो कभी एक श्रुतवाक्य का चिन्तन करता है तो कभी उसको छोड़कर अन्य श्रुतवाक्य का चिन्तन करता है, इसका नाम व्यंजनसंक्रम है। वह तीन योगों में किसी का और फिर उसको छोड़कर अन्य योग का चिन्तन करता है, यह योगसंक्रम है। वह प्रथम शुक्लध्यान इस प्रकार के अर्थसंक्रमादि से सहित होता है, इसीलिए उसे सविचार कहा गया है। वह तीनों योग युक्त श्रुतकेवली के होता है। द्वितीय शुक्लध्यान का नाम एकत्ववितर्क अविचार है। इस शुक्लध्यान में प्रथम शुक्लध्यान के समान न तो द्रव्य-पर्याय आदि का भेदपूर्वक चिन्तन होता है और न उसमें उपर्युक्त तीन प्रकार का संक्रम भी रहता है, इसीलिए उसे एकत्व (पृथक्त्व से रहित) वितर्क अविचार शुक्लध्यान कहा गया है। वह तीन योगों में से किसी एक ही योग वाले श्रतकेवली के होता है। उक्त दोनों शुक्लध्यानों में श्रतज्ञान के प्राश्रय से नय-प्रमाण के अनसार चिन्तन होता है. इसीलिए दोनों को सवितर्क कहा गया है।।१७-१६॥ प्रागे तीसरे शुक्लध्यान के स्वरूप व उसके स्वामी का निर्देश किया जाता है - सूक्ष्मकायक्रियस्य स्याद्योगिनः सर्ववेदिनः। शुक्लं सूक्ष्मक्रियं देव ख्यातमप्रतिपाति तत् ॥ सूक्ष्म काय की क्रिया से युक्त सर्वज्ञ सयोगकेवली के तीसरा शुक्लध्यान होता है। वह हे देव ! सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाति नाम से प्रसिद्ध है। विवेचन-तीसरा शुक्लध्यान तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली के होता है। सयोगकेवली का काल अन्तर्मुहर्त व पाठ वर्ष कम एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है। मुक्ति की प्राप्ति में जब थोड़ा सा काल शेष रह जाता है तब उक्त केवली योगों का निरोध करते हैं। इस प्रकार योगनिरोध करते हुए जब उनके काय की क्रिया उच्छ्वास-निःश्वास मात्र के रूप में सूक्ष्म रह जाती है तब उनके उक्त ध्यान होता है, इसीलिए उसे सूक्ष्मक्रिय कहा गया है तथा प्रतिपतनशील न होने के कारण उसके लिए अप्रतिपाति यह दूसरा विशेषण भी दिया गया है ॥२०॥ - अब चौथे शुक्लध्यान के स्वरूप व उसके स्वामी का निर्देश किया जाता हैस्थिरसर्वात्मदेशस्य समुच्छिन्नक्रियं भवेत् । तुर्य शुक्लमयोगस्य सर्वज्ञस्यानिवर्तकम् ॥२१ जब पूर्वोक्त सर्वज्ञ केवली के समस्त प्रात्मप्रदेश स्थिरता को प्राप्त हो जाते हैं तब योग से रहित हो जाने पर उनके समुच्छिन्नक्रिय अनिवति नाम का चौथा शुक्लध्यान होता है । विवेचन-यह अन्तिम शुक्लध्यान प्रयोगकेवली के शैलेश्य अवस्था में होता है। शलेश्य का अर्थ है समस्त शीलों का स्वामित्व । योग का अभाव हो जाने पर चौदहवें गणस्थान को प्राप्त प्रयोगकेवली समस्त शील-गुणों के स्वामी हो जाते हैं (शील के भेद प्रभेदों के लिए देखिए मलाचार का शील-गुणाधिकार)। उस समय उनके उक्त ध्यान होता है। यहां सूक्ष्म काय की क्रिया के भी नष्ट हो जाने से इस ध्यान को समुच्छिन्नक्रिय और निवृत्ति से रहित हो जाने के कारण अनिवति कहा गया है। इस प्रकार इस ध्यान को ध्याते हुए प्रयोगकेवली प्रइ उ ऋ और ल इन पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारणकाल में मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं ॥२१॥ यहां प्राशंकानानार्थालम्बना चिन्ता नष्टमोहे न विद्यते । तन्निरोधेऽपि यद् ध्यानं सर्वज्ञ तत् कथं प्रभो॥
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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