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________________ ध्यानस्तवः पुरुष के ज्ञान (चेतनता) से रहित होने पर ध्यान भी जड़ता को प्राप्त होता है। सम्भवतः इसी अभिप्राय को लेकर जरूपता का भी निषेध किया गया है। यह अभिप्राय भी उक्त तत्त्वार्थश्लोकवातिक में निहित है ॥६॥ यह बस्तुस्वरूप अध्यात्मवेदी के अनुभव में स्वयं प्राता है, यह प्रागे कहा जाता हैज्ञस्वभावमुदासीनं स्वस्वरूपं प्रपश्यता। स्फुटं प्रकाशते पुंसस्तत्त्वमध्यात्मवेदिनः ॥७॥ जीव का स्वरूप ज्ञानमय व उदासीन-राग-द्वेष से रहित है, इसे जो देखता-जानता है उस अध्यात्मवेदी को स्पष्ट रूप से तत्त्व प्रतिभासित होता है। विवेचन-पीछे श्लोक ५ में यह कहा जा चुका है कि समाधि में स्थित होते हुए भी जिसे ज्ञानमय प्रात्मा प्रतिभासित नहीं होता है उसका वह ध्यान वस्तुतः ध्यान नहीं है, किन्तु मोहरूप होने से वह ध्यानाभास है। इस पर यह शंका हो सकती थी कि तो फिर ध्यान किसके सम्भव है ? इसके समाधान स्वरूप यहां यह कहा गया है कि जो ज्ञायकस्वभावरूप प्रात्मस्वरूप को देख रहा है, ध्यान यथार्थतः उसके होता है, क्योंकि वह मोह से रहित होकर प्रात्मतत्त्व को जानता है ॥७॥ - प्रागे ध्यान के भेद और उनके फल का निर्देश किया जाता हैप्रात रौद्रं तथा धर्म्य शुक्लं चेति चतुर्विधम् । तत्राद्यं संसृतेर्हेतुद्वंयं मोक्षस्य तत्परम् ॥८॥ ध्यान प्रार्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल के भेद से चार प्रकार का है। उनमें प्रथम दो ध्यान-प्रात और रौद्र-संसार के कारण हैं तथा अन्तिम दो-धर्म्य और शुक्ल-मोक्ष के कारण हैं ।।८।। आगे ध्यान के उक्त चार भेदों में प्रथमत: आर्तध्यान का स्वरूप दो श्लोकों में कहा जाता हैविप्रयोगे मनोज्ञस्य संप्रयोगाय संततम् । संयोगे चामनोज्ञस्य तद्वियोगाय या स्मृतिः ॥६॥ पुंसः पीडाविनाशाय स्यादात सनिदानकम् । गृहस्थस्य निदानेन विना साधोस्त्रयं क्वचित् ॥ अभीष्ट पदार्थ का वियोग होने पर उसके संयोग के लिए, अनिष्ट का संयोग होने पर उसके वियोग के लिए, तथा पीडा के विनाश के लिए जो जीव के निरन्तर स्मरण या चिन्तन होता है वह प्रार्तध्यान कहलाता है। साथ ही भोगाकांक्षारूप जो निदान है वह भी प्रार्तध्यान के अन्तर्गत है। इस प्रकार विषयभेद से प्रार्तध्यान चार प्रकार का है। उनमें गृहस्थ के तो वे चारों सम्भव हैं, परन्तु साधु के निदान के विना पूर्व के तीन प्रार्तध्यान कदाचित् हो सकते हैं । विवेचन-पात यह 'ऋत' शब्द से बना है। ऋत का अर्थ दुख होता है, तदनुसार दुख के निमित्त से या दुख में जो संक्लेश परिणाम होता है उसे प्रार्तध्यान कहा जाता है। वह विषय के भेव से.. चार प्रकार का है--१. अभीष्ट स्त्री-पुत्रादि अथवा धन-सम्पत्ति आदि का वियोग होने पर उनके संयोग के लिए जो विचार रहता है यह प्रथम प्रार्तध्यान है। इसी प्रकार इष्ट पदार्थों के संयोग के होने पर उनका कभी वियोग न हो इसके लिए, और यदि उनका संयोग नहीं है तो किस प्रकार से उनकी प्राप्ति हो इसके लिए भी जो निरन्तर संक्लेशरूप परिणाम रहता है, यह सब प्रथम प्राध्यान के अन्तर्गत है। २. अनिष्ट पदार्थ का संयोग होने पर किस प्रकार उसका मुझसे वियोग हो, इसके लिए जो निरन्तरचिन्तन होता है, तथा भविष्य में कभी किसी अनिष्ट पदार्थ का संयोग न हो, इसके लिए भी जो निरन्तर विचार रहता है, यह दूसरा प्रार्तध्यान है। ३. रोगादिजनित पीड़ा के होने पर उससे किस प्रकार छुटकारा हो, इसके लिए तथा यदि पीड़ा न भी हो तो भी भविष्य में कभी किसी प्रकार की पीड़ा न हो, इसके लिए भी जो निरन्तर विचार रहता है; यह तीसरा प्रार्तध्यान माना गया है। ४. भविष्य में इन्द्र व चक्रवर्ती प्रादि के भोगों की प्राप्ति के लिए जो यह प्रार्थना की जाती है कि मेरे द्वारा अनुष्ठित तप व संयम के प्रभाव से मुझे अमुक प्रकार का सुख प्राप्त हो, इसका नाम निदान है। यह चौथे प्रकार का प्रार्तध्यान १. त. श्लो. ६, २७, ३, पृ. ४६७-६८.
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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