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________________ प्रस्तावना संक्लेश रूप परिणति को यहां प्रार्तध्यान कहा गया है (६-६)। राग-द्वेष से रहित साधु वस्तुस्वरूप का विचार करता है, इसलिए रोगादि जनित वेदना के होने पर वह उसे अपने पूर्वोपार्जित कर्म के उदय से उत्पन्न हुई जानकर शुभ परिणाम के साथ सहन करता है। ऐसा विवेकी साधु उत्तम आलम्बन लेकरनिर्मल परिणाम के साथ-उसका पाप से सर्वथा रहित (पूर्णतया निर्दोष) अथवा अल्प पाप से युक्त होता हुआ प्रतीकार करता है, फिर भी निर्दोष उपाय के द्वारा चिकित्सादि रूप प्रतीकार करने के कारण उसके आर्तध्यान नहीं होता, किन्तु धर्मध्यान ही होता है। इसी प्रकार वह सांसारिक दुःखों के प्रतीकारस्वरूप जो तप-संयम का अनुष्ठान करता है वह इन्द्रादि पदों की प्राप्ति की अभिलाषा रूप निदान से रहित होता है, इसीलिए इसे भी आर्त ब्यान नहीं माना गया, किन्तु निदान रहित धर्मध्यान ही माना गया हैं। संसार के कारणभूत जो राग, द्वेष और मोह हैं वे आर्तध्यान में रहते हैं। इसीलिए उसे संसार रूप वृक्ष का मूल कहा गया है (१०-१३) । , आर्तध्यानी के कापोत, नील और कृष्ण ये तीन अशुभ लेश्यायें होती हैं। प्रार्तध्यानी की पहिचान इष्टवियोग एवं अनिष्टसंयोगादि के निमित्त से होनेवाले प्राक्रन्दन, शोचन, परिवेदन एवं ताड़न आदि हेतुओं से हुआ करती है। वह अपने द्वारा किये गये भले-बुरे कर्मों की प्रशंसा करता है तथा धन-सम्पत्ति के उपार्जन में उद्यत रहता हा विषयासक्त होकर धर्म की उपेक्षा करता है (१४-१७)। वह प्रार्तध्यान व्रतों से रहित मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि एवं अविरतसम्यग्दष्टि तथा संयतासंग्रत व प्रमादयुक्त संयत जीवों के होता है (१८)। २ रौद्रध्यान हिंसानुबन्धी, मुषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुन्धी के भेद से रौद्रध्यान चार प्रकार का है। क्रोध के वशीभूत होकर एकेन्द्रियादि जीवों के ताड़ने, नासिका आदि के छेदने, रस्सी आदि से बांधने एवं प्राणविघात करने आदि का जो निरन्तर चिन्तन होता है; यह हिंसानुबन्धी नामक प्रथम रौद्रध्यान का लक्षण है । परनिन्दाजनक, असभ्य एवं प्राणिप्राणवियोजक आदि अनेक प्रकार के असत्य वचन बोलने का निरन्तर चिन्तन करना; इसे मृषानुबन्धी नामक दूसरा रौद्रध्यान माना गया है। जिसका अन्तःकरण पाप से कलुषित रहता है तथा जो मायापूर्ण व्यवहार से दूसरों के ठगने में उद्यत रहता है उसके यह रौद्रध्यान होता है। जिसका चित्त क्रोध ब लोभ के वशीभूत होकर दूसरों की धन-सम्पत्ति के अपहरण में संलग्न रहता है उसके स्तेयानुबन्धी नाम का तीसरा रौद्रध्यान समझना चाहिए। विषयसंरक्षणानुवन्धी नामक चौथे रौद्रध्यान के वशीभूत हा जीव विषयोपभोग के लिए उसके साधनभूत धन के संरक्षण में निरन्तर विचारमग्न रहा करता है। नरक गति का कारभूत यह चार प्रकार का रोद्रध्यान मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक सम्भव है। यहां प्रार्तध्यानी के समान रौद्रध्यानी के भी यथासम्भव लेश्याओं और उसके लिंगों आदि का निर्देश किया गया है (१९-२७)। .३ धर्मध्यान __धर्मध्यान की प्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम यहां यह सूचना की गई है कि मुनि को १ ध्यान की भावनाओं, २ देश, ३ काल, ४ प्रासनविशेष, ५ पालम्बन, ६ क्रम, ७ ध्यातव्य, ८ ध्याता, ६ अनुप्रेक्षा, १० लेश्या, ११ लिंग और १२ फल; इनको जानकर धर्मध्यान का चिन्तन करना चाहिए। तत्पश्चात् धर्मध्यान का अभ्यास कर लेने पर शुक्लध्यान का ध्यान करना चाहिए (२८-२९)। इस प्रकार की सूचना करके आगे इन्हीं १२ प्रकरणों के आश्रय से क्रमशः प्रकृत धर्मध्यान का विवेचन किया गया है। १ भावना-ध्यान के पूर्व जिसने भावनाओं के द्वारा अथवा उनके विषय में अभ्यास कर लिया है वह ध्यानविषयक योग्यता को प्राप्त कर लेता है। वे भाबनायें ये हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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