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________________ Kा जिण जिन मूल ग्रन्थगत विशिष्ट शब्दानुक्रमणिका छउमत्थ छद्मस्थ ज्ञानादि गुणों के आवारक घातिकर्मरूप छन में स्थित (अल्पज्ञ) ३,७०,८४. तीर्थकर केवली-राग, द्वेष एवं मोह के - विजेता ३,१७,४६,६८,७० जिणमय जिनमत प्रवचन, तीर्थङ्करदर्शन १५, ६६ जिणाणमाण जिनानाम् अाज्ञा जिनाज्ञा, जिनवाणी जोईसर योगेश्वर, योगीश्वर, योगों से प्रधान, योगियों से अथवा योगियों योगिस्मर्य के ईश्वर, योगियों के द्वारा ध्यातव्य जोग . योग औदारिक आदि शरीरों के संयोग से उत्पन्न होने वाले प्रात्मपरिणाम का विशेष व्यापार ३, ७८,८० जोगणिरोह योगनिरोध मन, वचन व काय योगों का विनाश जोगी योगिन धर्म या शुक्ल ध्यानरूप योग से सहित १, ७५ झाइयव्व ध्यातव्य ध्यान के योग्य आज्ञा आदि २८ झाण ध्यान स्थिर अध्यवसान, अन्तर्मुहुर्त काल तक एक वस्तुमें चित्त का अवस्थान अथवा योगनिरोध भाणज्झयण ध्यानाध्ययन ध्यानप्रतिपादक अध्ययन, प्रकृत ग्रन्थ का नाम झाणप्पडिवत्तिकम ध्यानप्रतिक्रम मनयोगादिके मिग्रहरूप ध्यानप्रतिपत्ति की परिपाटी झाणसंताण ध्यानसन्तान ध्यान का प्रवाह झायार घ्यात (ध्यातारः) प्रमादादि रहित ध्याता ठि . स्थिति ज्ञानावरणादिरूप कर्मप्रकृतियों के जघन्यादिरूप - में अवस्थित रहने का काल, धर्मास्ति कायादि का द्रव्यरूप में अवस्थान ५१, ५२ णाण ज्ञान वस्तु को मतिज्ञानादिरूप बोध णामावरण ज्ञानावरम ज्ञान का मान्छादक कर्मविशेष णाणाविहदोस नानाविध दोष चमड़ी के छिलने व नेत्रों के निकालने आदि रूप अनेक हिंसादि के उपायों में निरन्तर प्रवृत्त रहमा . णिज्जरा .. निर्जस कर्म का क्षय तणकाया तनुकायक्रिय उच्छ्बास-निःश्वासादिरूप सूक्ष्म कायक्रिया L . 2 रिय - से युक्त - तपस् MH तव ताडण ताडन तिरयण तिरियगइ थेज्ज त्रिरत्न विर्यग्मति अनशन आदि रूप तप छाती व शिर का कूटना एवं बालों का नोंचना आदि ज्ञान, दर्शन व चारित्ररूप तीन रत्न तियंचगति जिनशासन में स्थिरता अग्नि मादि से जलाना शंकादि दोषों के परिहारपूर्वक प्रशमादि गुणों से युक्तता स्थय दहन दर्शनशुद्धि दसणसुद्धी ३२
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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