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________________ ४३ -८१] एकत्ववितर्काविचारध्यानस्वरूपम् 'परागभावस्य' रागपरिणामरहितस्येति गाथार्थः ।।७।। जं पुण सुणिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उपाय-ठिइ-भंगाइयाणमेगंमि पज्जाए ॥७॥ अवियारमत्थ-वंजण-जोगंतरमो तयं बितियसुक्कं । पुब्वगयसुयालंबणमेगत्तवितक्कमवियारं ॥१०॥ यत्पुनः 'सुनिष्प्रकम्पम्' विक्षेपरहितं 'निवात शरणप्रदीप इव' निर्गतवातगृहैकदेशस्थदीप इव 'चित्तम्' अन्तःकरणम्, क्व ? उत्पाद-स्थिति-भङ्गादीनामेकस्मिन् पर्याये ॥७९॥ ततः किमत आह -अविचारम् असंक्रमम्, कुतः ? अर्थ-व्यञ्जन-योगान्तरतः इति पूर्ववत्, तमेवंविधं द्वितीयं शुक्लं भवति, किममिघानमित्यत आह–'एकत्ववितर्कमविचारम्' एकत्वेन अभेदेन, वितर्कः व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तत्तथा, इदमपि च पूर्वगतश्रुतानुसारेणैव भवति, अविचारादि पूर्ववदिति गाथार्थः ।।८०॥ निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स। . सुहुमकिरियाऽनियट्टि तइयं तणुकायकिरियस्स ॥१॥ कारी होते हैं ॥७७-७८॥ अब आगे ध्यातव्य के इस प्रकरण में द्वितीय शुक्लध्यान का निर्देश किया जाता है वाय से रहित घर के दीपक के समान जो चित्त (अन्तःकरण) उत्पाद, स्थिति और भंग इनमें से किसी एक ही पर्याय में अतिशय स्थिर होता है वह एकत्ववितर्क अविचार नाम का दूसरा शुक्लध्यान है । वह अर्थान्तर, व्यंजनान्तर और योगान्तर के संक्रमण से रहित होने के कारण अविचार होकर पूर्वगत श्रुत का प्राश्रय लेनेवाला है ।। विवेचन-जिस प्रकार घरके भीतर स्थित दीपक वायु के अभाव में कम्पन से सर्वथा रहित होता हुमा स्थिर रूप में जलता है-उसको लौ इधर उधर नहीं घूमती है, उसी प्रकार ध्यान की अस्थिरता के कारणभूत राग, द्वेष व मोह के न रहने से एकत्ववितर्क प्रविचार शुक्लध्यान स्थिर रहता है। पूर्वोक्त पृथक्त्ववितर्क सविचार ध्यान में जहां उत्पाद, स्थिति और भंग इन अवस्थानों का भेदपूर्वक परिवर्तित रूप में चिन्तन होता था वहाँ इस ध्यान में उनका चिन्तन भेद को लिये हुए परिवर्तित रूप में नहीं होता, किन्तु उक्त तीनों अवस्थानों में से यहां किसी एक ही अवस्था का भेद के विना चिन्तन होता है। इसी प्रकार पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान में अर्थ, व्यंजन और योग का परस्पर संक्रमण होता था, अर्थात् उस ध्यान का ध्याता अर्थ का विचार करता हुमा उसे छोड़कर व्यंजन (शब्द) का विचार करने लगता था, पश्चात् उस व्यंजन को भी छोड़कर योग का अथवा पुनः अर्थ का चिन्तन करता था। अथवा ध्येयस्वरूप प्रर्थ द्रव्य या पर्याय है, उक्त ध्याता कभी द्रव्य का चिन्तन करता है तो कभी उसे छोड़कर पर्याय का चिन्तन करता है, तत्पश्चात् पुनः द्रव्य का चिन्तन करता है। यह अर्थसंक्रमण हुना। व्यंजन का अर्थ वचन–श्रुतवचन है, उक्त ध्याता एक श्रुतवचन का ध्यान करता हुआ उसे छोड़कर अन्य का ध्यान करता है, उसको भी छोड़ अन्य का ध्यान करता है। इस प्रकार उक्त ध्यान में व्यंजन का संक्रमण चाल रहता है। उसी प्रकार योग का भी संक्रमण उसमें हुमा करता है-वह कभी काययोग को छोड़कर अन्य योग को ग्रहण करता है तो फिर उसे भी छोड़कर पुनः काययोग को ग्रहण करता है। अर्थ, व्यंजन और योग का इस प्रकार का संक्रमण प्रकृत एकत्व वितर्क शुक्लध्यान में नहीं रहता, इसीलिए उसे प्रविचार कहा गया है। पूर्वगत श्रुत का पालम्बन उन दोनों ही शुक्लध्यानों में समान रूप से विद्यमान रहता है ॥७६-८०॥ प्रागे क्रमप्राप्त तृतीय शुक्लध्यान के विषय का निर्देश किया जाता है मुक्ति गमन के समय कुछ योगनिरोध कर चुकने वाले सूक्ष्म काय की क्रिया से संयुक्त केवली के सूक्ष्मक्रिय-अनिवति नाम का तीसरा शुक्लध्यान होता है।
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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