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________________ प्रस्तावना ग्रन्थ नाम जैसा कि टीकाकार हरिभद्र सूरि ने प्रावश्यकसूत्र नियुक्ति की टीका में प्रस्तुत ग्रन्थ को गभित करते हुए निर्देश किया है, इसका नाम ध्यानशतक रहा है। परन्तु मूल ग्रन्थ के कर्ता ने मंगलपद्य में जो प्रतिज्ञा की है, तदनुसार उनको उसका नाम ध्यानाध्ययन अभीष्ट रहा दिखता है। उक्त मंगलपद्य में उन्होंने शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा कर्मरूप ईंधन के भस्म कर देनेवाले योगीश्वर को प्रणाम करके ध्यानाध्ययन के कहने की प्रतिज्ञा की है। अध्ययन शब्द से यहां अध्ययन के विषयभूत ग्रन्थविशेष का अभिप्राय रहा है। तदनुसार जिसके पढ़ने से अध्येता को ध्यान का परिचय प्राप्त होता है ऐसे ध्यान के प्रतिपादक शास्त्र का वर्णन करना ही ग्रन्थकार को अभीष्ट रहा है और उन्होंने उसी के कहने की प्रारम्भ में प्रतिज्ञा की है । ग्रन्थगत विषय के विवेचन को देखते हुए भी यह निश्चित है कि उसमें ध्यान का ही व्यवस्थित रूप में वर्णन किया गया है, अतः उसका 'ध्यानाध्ययन' नाम सार्थक ही है। हरिभद्र सूरि ने उसकी टीका करते हुए जो 'ध्यानशतक' नाम से उसका उल्लेख किया है उसका कारण ग्रन्थ के अन्तर्गत गाथाओं की संख्या है, जो सौ के आस-पास (१०५) ही है। ग्रन्थकार प्रस्तुत ग्रन्थ का कर्ता कौन है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। जैसा कि 'बृहद् जैन साहित्य का इतिहास' भाग ४ (पृ. २५०) में संकेत किया गया है, प्रस्तुत ग्रन्थ में १०६ गाथायें पायी जाती हैं। उनमें जो अन्तिम गाथा (१०६) है उसमें उसे जिनभद्र क्षमाश्रमण द्वारा विरचित सूचित किया गया है। वह गाथा इस प्रकार है पंचुत्तरेण गाहासएण झाणस्स यं (ज) समक्खायं । जिणभद्दखमासमणेहि कम्मविसोहीकरणं जइणो' ।। यह गाथा कुछ असम्बद्ध-सी दिखती है। भाव उसका यह प्रतीत होता है कि जिनभद्र क्षमाश्रमण १. ध्यानशतकस्य च महार्थत्वाद्वस्तुतः शास्त्रान्तरत्वात् प्रारम्भ एव विघ्नविनायकोपशान्तये मंगलार्थमिष्ट देवतानस्कारमाह-ध्यानशतक टीका १ (उत्थानिका)। 2. Discriptive Catalogue of the Government Collection of Manuscripts (Vol. xvii, Pt. 3, P. 416) Bhandarkar Oriental Recearch Instiute Poona. ३. यह गाथा आवश्यकसूत्र (पूर्व भाग पृ. ५८२-६१२) के अन्तर्गत ध्यानशतक में तथा वि. भ. सु. च. ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित उसके स्वतन्त्र संस्करण में भी नहीं पायी जाती है। यदि यह गाथा मूल ग्रन्थकार के द्वारा रची गई होती तो टीकाकार हरिभद्र सूरि द्वारा जिनभद्र क्षमाश्रमण के नाम का निर्देश अवश्य किया जाता।
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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