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________________ -४४] ध्यानस्य पालम्बनानि प्रतिपत्तिक्रमश्च गाथार्थः ।।४।। गतमासनद्वारम्, अधुनाऽऽलम्बनद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह-- आलंबणाइँ वायण-पुच्छण-परियट्टणाऽणुचितामो। सामाइयाइयाइं सद्धम्मावस्सयाई च ॥४२॥ इह धर्मध्यानारोहणार्थमालम्ब्यन्त इत्यालम्बनानि 'वाचना-प्रश्न-परावर्तनाऽनुचिन्ताः' इति । तत्र वाचनं वाचना, विनेयाय निर्जराथै सूत्रादिदानमित्यर्थः, शङ्किते सूत्रादौ संशयापनोदाय गुरुप्रच्छनं प्रश्न इति, परावर्तनं तु पूर्वाधीतस्यैव सूत्रादेरविस्मरण-निर्जरानिमित्तमभ्यासकरणमिति, अनुचिन्तनम् अनुचिन्ता मनसैवाविस्मरणादिनिमित्तं सूत्रानुस्मरणमित्यर्थः, वाचना च प्रश्नश्चेत्यादि द्वन्द्वः, एतानि च श्रुतधर्मानुमतानि वर्तन्ते, तथा 'सामायिकादीनि सद्धर्मावश्यक नि च' इति, प्रमूनि तु चरणधर्मानुगतानि वर्तन्ते, सामायिकमादौ येषां तानि सामायिकादीनि, तत्र सामायिकं प्रतीतम्, आदिशब्दान्मुखवस्त्रिका-प्रत्युपेक्षणादिलक्षणसकलचक्रवालसामाचारीपरिग्रहो यावत् पुनरपि सामायिकमिति, एतान्येव विधिवदासेव्यमानानि, सन्ति-शोभनानि, सन्ति च तानि चारित्रधर्मावश्यकानि चेति विग्रहः, आवश्यकानि नियमतः करणीयानि, चः समुच्चये इति गाथार्थः ॥४२॥ साम्प्रतममीषामेवाऽऽलम्बनत्वे निबन्धनमाह विसमंमि समारोहइ दढदव्वालंबणो जहा पुरिसो। सूत्ताइकयालंबो तह झाणवरं समारुहइ ॥४३॥ 'विषमे निम्ने दुःसञ्चरे 'समारोहति' सम्यग परिक्लेशेनोवं याति । कः? दृढं बलवद् द्रव्यं रज्ज्वाद्यालम्बनं यस्य स तथाविधः, यथा 'पुरुषः' पुमान् कश्चित्, 'सूत्रादिकृतालम्बनः' वाचनादिकृतालम्बन इत्यर्थः. 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'ध्यानवरं' धर्मध्यानमित्यर्थः, समारोहतीति गाथार्थः ॥४३॥ गतमालम्बनद्वारम् । अधुना क्रमद्वारावसरः, तत्र लाघवार्थ धर्मस्य शुक्लस्य च (तं) प्रतिपादयन्नाह झाणप्पडिवत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईप्रो। भवकाले केवलिणो सेसाण जहासमाहीए ॥४४॥ ध्यानं प्राग्निरूपितशब्दार्थम, तस्य प्रतिपत्तिक्रम इति समासः, प्रतिपत्तिक्रमः प्रतिपत्तिपरिपाट्यभिधीयते, स च भवति मनोयोगनिग्रहादिः, तत्र प्रथमं मनोयोगनिग्रहः ततो वाग्योगनिग्रहः ततः काययोग अब पालम्बन द्वार का निरूपण करते हुए उसके अवयवार्थ को स्पष्ट करते हैं वाचना, प्रश्न, परावर्तन और अनुचिन्ता तथा सामायिक आदि व सद्धर्मावश्यक प्रादि; ये ध्यान के पालम्बन हैं॥ विवेचन-कर्मनिर्जरा के निमित्त शिष्य के लिए जो सूत्र आदि का दान किया जाता है उसका नाम वाचना है। सूत्र आदि के विषय में शंका के होने पर उसे दूर करने के लिए जो गुरु से पूछा जाता है वह प्रश्न कहलाता है। पूर्वपठित सूत्र आदि का विस्मरण न होने देने तथा कर्मनिर्जरा के निमित्त अभ्यास करना, इसे परावर्तन कहा जाता है। अविस्मरण प्रादि के लिए मन से ही सूत्र का अनुस्मरण करना, इसका नाम अनुचिन्तन है। ये चारों श्रुतधर्म का अनुसरण करने वाले हैं। तथा सामायिक प्रादि व सद्धर्मावश्यक (चारित्रधर्मावश्यक) ये चारित्रधर्म का अनुसरण करने वाले हैं ॥४२॥ इनको पालम्बनता किस प्रकार से है, इसे आगे दृष्टान्त द्वारा प्रगट किया जाता है जिस प्रकार कोई पुरुष रस्सी आदि किसी प्रबल द्रव्य का प्राश्रय लेकर विषम-ऊँचे-नीचे प्रादि दुर्गम-स्थान पर चढ़ जाता है उसी प्रकार ध्याता सूत्र आदि का पूर्वोक्त वाचना प्रादि का-आश्रय लेकर उत्तम ध्यान (धर्मध्यान) पर प्रारूढ़ हो जाता है ॥४३॥ अब अवसरप्राप्त क्रमद्वार का वर्णन करते हुए लाघव की अपेक्षा से धर्म और शुक्ल इन दोनों ही ध्यानों के क्रम को दिखलाते हैं भवकाल में-मोक्षप्राप्ति के पूर्व अन्तर्मुहर्त प्रमाण काल तक रहने वाली शैलेशी अवस्था मेंकेवली के ध्यान (शक्ल) की प्राप्ति का क्रम मनोयोग आदि का निग्रह है-क्रम से मनयोग, वचनयोग
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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