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________________ १० ध्यानशतकम् [१५एवार्तध्याता ज्ञायत इति ? उच्यते-लिङ्गेभ्यः तान्येवोपदर्शयन्नाह तस्सऽक्कंदण-सोयण-परिदेवण-ताडणाई लिंगाई। इदा ऽणिविप्रोगाऽविप्रोग-वियणानिमित्ताई ॥१५॥ 'तस्य' आर्तध्यायिनः प्राक्रन्दनादीनि लिङ्गानि, तत्राऽऽक्रन्दनम्-महता शब्देन विरवणम्, शोचनस्वत्वश्रुपरिपूर्णनयनस्य दैन्यम्, परिदेवनं पुनः पुनः क्लिष्टभाषणम्, ताडनम् उरःशिरःकुट्टन-केशलुञ्चनादि, एतानि 'लिङ्गानि' चिह्नानि, अमूनि च इष्टानिष्टवियोगावियोग-वेदनानिमित्तानि, तष्टवियोगनिमित्तानि तथाऽनिष्टावियोगनिमित्तानि तथा वेदनानिमित्तानि चेति गाथार्थः ॥१५॥ किं चान्यत् निदइ य नियकयाइं पसंसह सविम्हनो विभूईप्रो।। पत्थेइ तासु रज्जइ तयज्जणपरायणो होइ ॥१६॥ "निन्दति' च कुत्सति च "निजकानि' आत्मकृतानि अल्पफल-विफलानि कर्म [कर्माणि] शिल्पकला-वाणिज्यादीन्येतद् गम्यते, तथा 'प्रशंसति' स्तौति बहुमन्यते 'सविस्मयः' साश्चर्यः 'विभूतीः' परसम्पद इत्यर्थः, तथा 'प्रार्थयते' अभिलषति परविभूतीरिति, 'तासु रज्यते' तास्विति प्राप्तासु विभूतिषु रागं गच्छति, 'तदर्जनपरायणो भवति' तासां विभतीनामर्जने उपादाने परायण उद्युक्तः तदर्जनपरायण इति, ततश्चैवम्भूतो भवति, असावप्यार्तध्यायीति गाथार्थः ।।१६।। किं च सद्दाइ विसयगिद्धो सद्धम्मपरम्मुहो पमायपरो। जिणमयमणवेक्खंतो वट्टइ अट्ट मि मामि ॥१७॥ शब्दादयश्च ते विषयाश्च तेषु गृद्धो मूच्छितः कांक्षावानित्यर्थः, तथा सद्धर्मपराङ्मुखः प्रमादपरः, तत्र दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, सँश्चासी धर्मश्च सद्धर्म:-क्षान्त्यादिकश्चरणधर्मो गृह्यते, ततः पराङ्मुखः, 'प्रमादपरः' मद्यादिप्रमादासक्तः, 'जिनमतमनपेक्षमाणो वर्नते आर्तध्याने' इति, तत्र जिनाः तीर्थकराः, तेषां मतम् आगमरूपं प्रवचनमित्यर्थः, तदनपेक्षमाणः तनिरपेक्ष इत्यर्थः । किम् ? वर्तते पातध्याने इति गाथार्थः ॥१७॥ साम्प्रतमिदमार्तध्यानं सम्भवमधिकृत्य यदनुगतं यदनहं वर्तते तदेतदभिधित्सुराह तदविरय-देसविरया-पमायपरसंजयाणुगं झाणं । सव्वप्पमायमूलं वज्जेयव्वं जइजणेणं ॥१८॥ 'तद्' आर्तध्यानमिति योगः, 'अविरत-देशविरत-प्रमादपर-संयतानुगम्' इति तत्राविरताः मिथ्या प्राक्रन्दन, शोचन, परिदेवन और ताड़न; ये उस प्रार्तध्यानी के परिचायक हेतु हैं जो इष्टवियोग, अनिष्ट-प्रवियोग और वेदना के निमित्त से होते हैं। महान शब्द के उच्चारण पूर्वक रुदन करने का नाम प्राक्रन्दन है। अश्रुपूर्ण नेत्रों की दीनता को शोचन (शोक) कहा जाता है। बार-बार संक्लेश युक्त भाषण करना, इसे परिदेवन कहते हैं। छाती व शिर आदि के पीटने को ताड़न कहा जाता है। इन चिह्नों के द्वारा प्रार्तध्यानी की पहिचान हो जाती है ॥१५॥ इसके अतिरिक्त वह अपने द्वारा किये गये निरर्थक या अल्प फल वाले.कार्यों की निन्दा करता है तथा प्राश्चर्यचकित होकर दूसरों की विभूतियों की प्रशंसा करता है व उनके लिए प्रार्थना करता है-उनकी इच्छा करता है। यदि वे इच्छानुसार उसे प्राप्त हो जाती हैं तो वह उनमें अनुराग करता है, और यदि वे नहीं प्राप्त हुई हैं तो वह उनके उपार्जन में उद्यत होता है ॥१६॥ और भी वह शब्दादि रूप इन्द्रिय विषयों में लुब्ध होकर समीचीन धर्म से विमुख होता हुमा प्रमाद में रत होता है-मद्यादि के सेवन में प्रासक्त होता है, इस प्रकार वह जिन-मत की अपेक्षा न करके उक्त प्रार्तध्यान में प्रवृत्त होता है ॥१७॥ अब वह मार्तध्यान किन के होता है इसका निर्देश करते हुए उसे छोड़ देने की प्रेरणा रे - वह मार्तध्यान अविरत-मिथ्यावृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत-एक-दो आदि अणुव्रतों के धारक श्रावक और प्रमादपुक्त संयत (प्रमत्तसंयत) जीवों के होता है। वह चूंकि सब प्रकार के
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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