SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यानशतकम् [१२उक्तं च परममुनिभिः-पुब्धि खलु भो! कडाणं कम्माणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं वेइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेदइत्ता, तवसा वा झोसइत्तेत्यादि, एवं वस्तुस्वभावचिन्तनपरस्य 'सम्यक' शोभनाध्यवसायेन सहन मानस्य सतः कुतोऽसमाधानम ? अपि तु धर्म्यमनिदानमिति वक्ष्यतीति गाथार्थः ॥११॥ परिहृत पाशङ्कागतः प्रथमपक्षः, द्वितीय-तृतीयावधिकृत्याह कुणो व पसत्थालंबणस्स पडियारमप्पसावज्जं । तव-संजमपडियारं च सेवो धम्ममणियाणं ॥१२॥ कुर्वतो वा । कस्य ? प्रशस्तं ज्ञानाद्युपकारकम् पालम्ब्यत इत्यालम्बनं प्रवृत्तिनिमित्तम्, शुभमध्य वसानमित्यर्थः । उक्तं च-काहं अछित्ति अवा महीहं, तवोवहाणेस व उज्जमिस्सं । गणं च णीती अणुसारवेस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं ॥१॥ इत्यादि, यस्यासौ प्रशस्तालम्बनस्तस्य । किं कुर्वतः इत्यत आह–'प्रतीकार' चिकित्सालक्षणम् । किविशिष्टम् ? 'अल्पसावद्यम्' अवद्यं पापम्, सहावद्येन सावद्यम्, अल्पशब्दोऽभाववचनः स्तोकवचनो वा, अल्पं सावा यस्मिन्नसावल्पसावद्यस्तम्, धर्नामनिदानमेवेति योगः । कुतः? निर्दोषत्वात्, निर्दोषत्वं च वचनप्रामाण्यात् । उक्तं च-गीयत्थो जयणाए कडजोगी कारणं मि निद्दोसो त्ति, इत्याद्यागमस्योत्सर्गापवादरूपत्वात्, अन्यथा परलोकस्य साधयितुमशक्यत्वात्, साधु चैतदिति । तथा 'तपःसंयमप्रतिकारं च सेवमानस्थ' इति तपःसंयमावेव प्रतिकारस्तपःसंयमप्रतिकारः, सांसारिकदुःखानामिति गम्यते, तं च सेवमानस्य, च-शब्दात्पूर्वोक्तप्रतिकारं च । किम ? 'धर्म्य' धर्मध्यानमेव भवति । कथं सेवमास्य ? 'अनिदानम्' इति क्रियाविशेषणम्, देवेन्द्रादिनिदानरहितमित्यर्थः। पाह-कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षो भवत्वितीदमपि निदानमेव ? उच्यते-सत्यमेतदपि निश्चयतः प्रतिषिद्धमेव । कथं ? मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः । प्रकृत्याऽभ्यासयोगेन यत उक्तो जिनागमे ॥१॥ इति । तथापि तु भावनायामपरिणत सत्त्वमङ्गीकृत्य व्यवहारत इदमदुष्टमेव, अनेनैव प्रकारेण तस्य चित्तशुद्धः क्रियाप्रवृत्तियोगाच्चेत्यत्र बहु तत्पर हुआ वह उसे समतापूर्वक भलीभांति सहता है-वह उसके वियोगविषयक चिन्तन से व्याकुल नहीं होता। इसीलिए राग-द्वेष से रहित होने के कारण उसके उक्त वेदना के वियोगविषयक प्रार्तध्यान सम्भव नहीं है। हां, जिसका अन्तःकरण राग-द्वेष से कलुषित होता है उसके वह अवश्य होता है ॥११॥ इस प्रकार उपर्युक्त शंका के अन्तर्गत प्रथम पक्ष का समाधान करके अब आगे उसके द्वितीय और तृतीय पक्ष का-रोगजनित वेदना के प्रतीकार एवं सांसारिक दुख के वियोगविषयक प्रार्तध्यान के प्रसंग का समाधान किया जाता हैजो साधु प्रशस्त-ज्ञानादि के उपकारक-पालम्बन का प्राश्रय लेकर उक्त वेदना का अल्प ता है तथा निदान से रहित होता हुआ तप-संयमरूप प्रतीकार का सेवन करता है उसके निदान से रहित धर्मध्यान ही रहता है, न कि प्रार्तध्यान ॥ विवेचन-प्रवृत्ति का निमित्तभूत जिसका उत्तम प्रध्यवसाय ज्ञानादि का उपकारक है वह उक्त शूलरोगादि का जो प्रतीकार करता है वह या तो सर्वथा पाप से रहित होता है या अल्प ही पाप से सहित होता है। इसी से उसके प्रार्तध्यान न होकर निदान रहित धर्म्यध्यान ही होता है । इस प्रकार से शंकाकार को शंकागत उस द्वितीय पक्ष का निराकरण हो जाता है जिसमें यह कहा गया था कि रोग का प्रतिकार करने पर उसके अनिष्टविप्रयोगजनित मार्तध्यान का प्रसंग अनिवार्य होगा। शंकागत तीसरा पक्ष यह था कि तप व संयम के प्राराधन. में नियम से सांसारिक दुख के वियोगविषयक प्रणिधानस्वरूप प्रार्तध्यान रहने वाला है। उसका निराकरण करते हुए यहां यह कहा गया है कि सांसारिक दुख के प्रतीकारस्वरूप तप-संयम का पाराधन करने वाला साधु चूंकि उनका पाराधन इन्द्रादि पद की प्राप्तिरूप निदान के विना करता है, अत एव वह प्रार्तध्यान न होकर धर्मध्यान ही है। इस पर यह कहा जा सकता है कि उसमें भी समस्त कर्मों के क्षयरूप मोक्ष की प्राप्ति की जो इच्छा रहती है वह भी निदान ही है । इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि वस्तुतः वह निदान ही है,
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy