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________________ ६ ध्यानशतकम् गाथार्थः ।।६।। उक्तः प्रथमो भेदः, साम्प्रतं द्वितीयमभिधित्सुराह तह सूल-सीस रोगाइवेयणाए विजोगपणिहाणं । तदसंपत्रोगचिता तप्पडियाराउलमणस्स ॥७॥ [ ७ ' तथा ' इति धणियम् - प्रत्यर्थमेव, शूल - शिरोरोगवेदनाया इत्यत्र शूल - शिरोरोगी प्रसिद्धी, श्रादिशब्दाच्छेषरोगातङ्कपरिग्रहः, ततश्च शूल - शिरोरोगादिभ्यो वेदना शूल - शिरोरोगादिवेदना, वेद्यत इति वेदना तस्याः, किम् ? ' वियोगप्रणिधानं' वियोगे दृढाध्यवसाय इत्यर्थः प्रनेन वर्तमानकालग्रहः, अनागतमधिकृत्याह — 'तदसम्प्रयोगचिन्ता' इति तस्याः - वेदनायाः कथञ्चिदभावे सत्यसम्प्रयोगचिन्ता - कथं पुनर्ममानया श्रायत्यां सम्प्रयोगो न स्यादिति ? चिन्ता चात्र घ्यानमेव गृह्यते अनेन च वर्तमानानागतकालग्रहणेनातीतकालग्रहोऽपि कृत एव वेदितव्यः, तत्र च भावनाऽनन्तरगाथायां कृतैव, किंविशिष्टस्य सत इदं वियोगप्रणिधानाद्यत आह- 'तत्प्रतिकारे' वेदनाप्रतिकारे चिकित्सायामाकुलं व्यग्रं मनः श्रन्तःकरणं यस्य स तथाविघस्तस्य, वियोगप्रणिधान द्यार्तध्यानमिति गाथार्थः ॥७॥ उक्तो द्वितीयो भेदः, साम्प्रतं तृतीयमुपदर्शयन्नाह - इट्ठाणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स । श्रवियोगऽज्भवसाणं तह संजोगाभिलासो य ॥ ८ ॥ 'इष्टानां' मनोज्ञानां विषयादीनामिति, विषयाः पूर्वोक्ताः श्रादिशब्दाद् वस्तुपरिग्रहः, तथा 'वेदनायाश्च' इष्टाया इति वर्तते । किम् ? अवियोगाध्यवसानमिति योगः प्रविप्रयोगदृढाध्यवसाय इति भाव:, अनेन वर्तमानकालग्रहः, तथा संयोगाभिलाषश्चेति, तत्र ' तथेति' घणियमित्यनेनात्यर्थप्रकारोपदर्शनार्थः, संयोगाभिलाषः - कथं मर्मभिर्विषयादिभिरायत्यां सम्बन्ध इतीच्छा, अनेन किलानागतकालग्रह इति वृद्धा व्याचक्षते, च-शब्दात् पूर्ववदतीतकालग्रह इति, किंविशिष्टस्य सत इदमवियोगाध्यवसानाद्यत आह—रागरक्तस्य जन्तोरिति गम्यते, तत्राभिष्वङ्गलक्षणो रागस्तेन रक्तस्य तद्भावितमूर्तेरिति गाथार्थः || ८ | उक्त स्तृतीयो भेदः, साम्प्रतं चतुर्थमभिधित्सु राह देविंद चक्कवट्टित्तणाई गुण- रिद्धिपत्थणमईयं । ग्रहमं नियाणचितणमण्णाणाणुगयमच्चतं ॥६॥ अब द्वितीय श्रार्तध्यान का स्वरूप कहा जाता है शूल व शिरोरोग प्रादि की पीड़ा के होने पर उसके प्रतीकार के लिए व्याकुल मन होकर जो उसके वियोग के विषय में उसके हट जाने के सम्बन्ध में- दृढ श्रध्यवसाय - निरन्तर चिन्तन होता है तथा उक्त वेदना के किसी प्रकार से नष्ट हो जाने पर भविष्य में पुनः उसका संयोग न हो, इसके लिए जो चिन्ता होती है; यह दूसरे श्रार्तध्यान का लक्षण । भूतकाल में यदि उसका बियोग हुआ है। अथवा उसका संयोग ही नहीं हुआ है तो उसे बहुत मानना, इसे भी दूसरा ही श्रार्तध्यान समझना चाहिए ॥७॥ श्रागे तृतीय श्रार्तध्यान का निरूपण करते हैं— रागयुक्त ( श्रसक्त) प्राणी के प्रभीष्ट शब्दादि अभीष्ट वेदना के विषष में जो उनके श्रवियोग के लिए इन्द्रियविषयों, उनकी प्राधारभूत वस्तु र सदा ऐसे ही बने रहने के लिए -प्रध्यवसान ( निरन्तर चिन्तन) होता है तथा यदि उनका संयोग नहीं है तो भविष्य में उनका संयोग किस प्रकार से हो, इस प्रकार की जो अभिलाषा बनी रहती है; यह तीसरे श्रार्तध्यान का लक्षण ॥८॥ श्रागे चतुर्थ श्रार्तध्यान का स्वरूप कहा जाता हैइन्द्रों और चक्रवर्तियों आदि (बलदेवादि) के गुणों और ऋद्धि की प्रार्थना ( याचना ) रूप निदान का चिन्तन करना, यह चौथा प्रार्तध्यान कहलाता | अतिशय श्रज्ञान से श्रनुगत होने के कारण उसे श्रधम ( निकृष्ट) समझना चाहिए ॥ विवेचन - श्रागामी भोगों की आकांक्षा का नाम निदान है। जिस संयम व तप आदि के द्वारा
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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