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________________ ध्यानसामान्यस्वरूपादि गाथार्थः ॥२॥ इत्थं ध्यानलक्षणमोघतोऽभिधायाधुना ध्यानमेव काल-स्वामिभ्यां निरूपयन्नाह अंतोमुहत्तमेत्तं चित्तावत्थाणमेगवत्, मि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥३॥ इह मुहूर्तः सप्तसप्ततिलवप्रमाणः कालविशेषो भण्यते, उक्तं च-कालो परमनिरुद्धो अविभज्जो तं तु जाण समयं तु । समया य असंखेज्जा भवंति ऊसास-तीसासा ॥१॥ हट्ठस्त अणवगल्लस्स णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसास-नीसासे एस पाणत्ति वच्चइ ॥२॥ सत्त पाणणि से थोवे सत्त थोवाणि से लवे। लवाणं सत्तहत्तरीए एस महत्ते वियाहिए ॥३॥ अन्तर्मध्यकरणे, ततश्चान्तर्महर्तमानं कालमिति गम्यते, मात्रशब्दस्तदधिककालव्यवच्छेदार्थः, ततश्च भिन्नम हर्तमेव कालम । किम ? 'चित्तावस्थानम्' इति चित्तस्य मनसः अवस्थानं चित्तावस्थानम्, अवस्थितिः अवस्थानम, निष्प्रकम्पतया वृत्तिरित्यर्थः। क्व ? 'एकवस्तुनि' एकम् अद्वितीयम, वसन्त्यस्मिन गुण-पर्याया इति वस्तु चेतनादि, एकं च तद्वस्तु एकवस्तु, तस्मिन् २, 'छद्मस्थानां ध्यानम्' इति, तत्र छादयतीति छद्म पिधानम, तच्च ज्ञानादीनां गुणानामावारकत्वाज्ज्ञानावरणादिलक्षणं घातिकर्म, छद्मनि स्थिताश्छद्मस्था अकेवलिन इत्यर्थः, तेषां छद्मस्थानाम्, 'ध्यान' प्राग्वत्, ततश्चार्य समुदायार्थ:-अन्तर्मुहर्तकालं यच्चित्तावस्थानमेकस्मिन वस्तूनि तच्छद्मस्थानां ध्यानमिति, 'योगनिरोधो जिनानां तु' इति, तत्र योगा:-तत्त्वत औदारिकादिशरीरसंयोगसमत्था आत्मपरिणामविशेषव्यापारा एव, यथोक्तम् -ौदारिकादिशरीरयुक्तस्याऽऽत्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, तथौदारिक-वैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो वाग्योगः, तथौदारिक-बक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसम्हसाचिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोगः इति, अमीषां निरोधो योगनिरोधः, निरोधनं निरोधः, प्रलयकरणमित्यर्थः, केषाम् ? 'जिनानां' केवलिनाम, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, योगनिरोध एव न तु चित्तावस्थानम्, चित्तस्यैवाभावात्, अथवा योगनिरोधो जिनानामेव ध्यानं नान्येषाम्, अशक्यत्वादित्यलं विस्तरेण, यथा चायं योगनिरोधो जिनानां ध्यानं यावन्तं च कालमेतद्भवत्येतदुपरिष्टाद्वक्ष्याम इति गाथार्थः ॥३।। साम्प्रतं छद्मस्थानामन्तर्मुहूर्तात् परतो यद्भवति तदुपदर्शयन्नाह अब इस ध्यान के काल और स्वामी का निरूपण करते हैं अन्तर्महर्त काल तक जो एक वस्तु में चित्त का अवस्थान है वह छद्मस्थों का ध्यान है तथा योगों का जो निरोध है -उनका जो विनाश है-वह जिनों (केवलियों) का ध्यान है। _ विवेचन-एक वस्तु में जो स्थिरतापूर्वक चित्त का अवस्थान होता है, इसका नाम ध्यान है। इस प्रकार का ध्यान छद्मस्थों के होता है और वह उनके अन्तर्मुहूर्त काल तक ही सम्भव है—इससे अधिक काल तक उसका रहना सम्भव नहीं है । 'वसन्ति अस्मिन् गुण-पर्यायाः इति वस्तु' इस निरुक्ति के अनसार जिसमें गण और पर्यायें रहती हैं वह वस्तु (जीव आदि) कहलाती है। 'छादयतीति छदम' अर्थात् जो प्रात्मा के ज्ञानादि गणों को प्राच्छादित करता है उसे छद्म कहा जाता है, जो ज्ञानावरणादि घाति कर्मस्वरूप है । इस प्रकार के छद्म में जो स्थित हैं, अर्थात् जिनके ज्ञानावरणादि चार घाति कर्म उदय में वर्तमान हैं, वे छद्मस्थ-केवली से भिन्न अल्पज्ञानी-कहलाते हैं। एक वस्तु में चित्त की एकाग्रतारूप पूर्वोक्त ध्यान इन छद्मस्थ जीवों के ही होता है-केवलियों के वह सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनके चित का अभाव हो चुका है। केवली के जो क्रम से योगों का निरोध होता है-उनका प्रभाव होता है, यही उनका ध्यान है। इस प्रकार का वह ध्यान उक्त केवली के ही सम्भव है-छद्मस्थ के नहीं। औदारिक आदि शरीरों के सम्बन्ध से जो जीव का व्यापार होता है उसका नाम योग है। बह मन, वचन और काय के भेद से तीन प्रकार का है। इनके निरोध के क्रम की प्ररूपणा पागे (गा. ७०-७६) ग्रन्थकार द्वारा स्वयं की गई है ॥३॥ छद्मस्थों के अन्तमहत काल तक ही ध्यान होता है, यह कहा जा चुका है। इसके पश्चात् उनके क्या होता है, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है
SR No.032155
Book TitleDhyanhatak Tatha Dhyanstava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1976
Total Pages200
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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