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________________ प्रकाशक की कलम से........ सकल श्री संत्र की सेवा में 'सिद्धहेम बृहवृत्ति लघुन्यास सहित' महाग्रंथ के प्रथम भाग को प्रकाशन करते हम अत्यंत ही आनंद अनुभव कर रहे हैं। परम कृपालु महावीर देव जब बाल्यावस्था में थे तब सौधर्मेन्द्र ने आकर भगवान् से व्याकरण संबंधी जो प्रश्न किये थे। उन सभी का भगवान् ने संतोषप्रद समाधान किया था। बाल्यवय में भी प्रभु की अद्भुत ज्ञान-प्रतिभा को देखकर सभी. दंग (आश्चर्यचकित) रह गये थे। उस काल में सर्वप्रथम जैनेन्द्र व्याकरण प्रसिद्धि में आया--यह बात हम हर वर्ष पर्युषणों में सुनते आये हैं। कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी म. ने सिद्धराज की प्रार्थना को लक्ष्य में रखवार 'सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशान का निर्माण किया। और उन्होंने इस ग्रन्थ के उपर लघुवृत्ति-बहवृत्ति और वृहन्न्यास का भी निर्माण किया था । दुर्भाग्यवश आज वह बृहन्न्यास पूर्णरूप से उपलब्ध नहीं हैं। इस व्याकरण की बहद्वृत्ति के ऊपर पृ. आचार्य श्री कनकप्रभसूरीजी म. विरचितन्याससार समुद्धार (लघुन्यास संज्ञक) उत्तम विवरण ज्ञान भडारों में आज भी मौजूद हैं । परन्तु आज उसकी हालत अत्यंत ही गंभीर हैं । परों जीण हो गए हैं तथा इसके साथ ही दुष्प्राप्य भी हैं। लेकिन जैन-शासन का सौभाग्य है कि उस हालत को देखकर पूज्य आचार्य श्री विजय कुन्दकुन्दसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न पूज्य मुनिराज श्री षज्रसेन विजयजी म. सा. के हृदय में उसके पुनर्मुद्रण रूप जीर्णोद्धार करवाने की सद्भावना. जगी । दूसरी ओर सिद्धांत दिवाकर प. पृ. आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोष सूरिजी म. की ओर से हमारे ट्रस्ट के सदस्यों को इस ग्रन्थरत्न के जीर्णोद्धार के लिए पुनीत प्रेरणा प्राप्त हुई । विशालग्रन्थ रत्न का प्रकाशन करना, एक भगीरथ कार्य था और इस कार्य में प्रायः डेढ़ लाख रूपये से कम खर्च न था। हमारे ट्रस्ट के सदस्यों को पूज्य गुरुवर्यो' की शुभ प्रेरणाओं से यह शुभ मनोरथ हुआ कि 'अपने ट्रस्ट के ज्ञाननिधि का सव्यय करके इस पुण्य कार्य का लाभ क्यों न उठाया जाय ? और आज ऐसे महान् ग्रन्थरत्नों के पीछे अपना अमूल्य समय देने वालों की संख्या अत्यल्प होने से पूज्य मुनि भगवंतों की इस पवित्र भावना को सहर्ष क्यों न अपनायी जाय ? और बस, हमने इस महामन्थरत्न के जीर्णोद्धार में पूर्ण सहयोग देने का निश्चय कर लिया। इस ग्रन्थरत्न के सुवाच्य पुनः सौंपादन के इस भगीरथ कार्य को परमाज्य, गच्छाधिपति, संघ. हितवत्सल, आचार्यदेव श्रीमविजय रामचन्द्रसूरीश्वजी महाराजा की अनुमति और शुभाशीर्वाद से अतिपरिश्रम पूर्वक पूर्ण करने वाले परम पूज्य अध्यात्मयोगी पंन्यास प्रवर श्री भद्रकरविजयजी गणिधर्य श्री के शिष्य-प्रशिष्य परमपूज्य विद्वद्वर्य मुनिराज श्री बन्नसेन विजयजी महाराज साहेब तथा परमज्य मु. श्री रत्नसेन विजयजी म. सा. के हम सदा ऋणी रहेंगे उनके इस भगीरथ कार्यकी हम बारंबार अनुमोदना करते हैं, एवं सकल श्री संघ को अर्ज करते हैं कि ऐसे संघरत्न मुनि भगवंतो, जो कि श्रुत-मक्ति से निःस्वार्थ श्रुत सेवा कर रहे हैं......उन्हें पूर्ण सहयोग प्रदानकर श्रुत समृद्धि को युगोपर्यंत जीवनदान देकर आत्म कल्याण के पथमें आगे बढे। . लि. श्री भेरुलाल कन्हैयालाल रिलिजीयसः ट्रस्ट
SR No.032128
Book TitleSiddha Hemchandra Shabdanushasan Bruhad Vrutti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVajrasenvijay
PublisherBherulal Kanaiyalal Religious Trust
Publication Year1986
Total Pages650
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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