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________________ [ तेरहवां प्रकरण शास्त्रानभिज्ञा शूद्रोऽपि पुत्रीं ददच्छुल्कं न गृह्णीयात् किं पुनः शास्त्रविद् द्विजातिः यस्माच्छुल्कं गृह्णन्गुरुं दुहितृ विक्रयं कुरुते । कुल्लूकः ६१० स्त्री-धन शास्त्रका न जाननेवाला शूद्र भी लड़की देनेके लिये शुल्कको न ले और जो शास्त्र के जानने वाले द्विजाति तो ऐसा करी नहीं सकते। जिसने शुल्क लेकर कन्या दी उसने गुप्त रीति से मानो कन्याकी बिक्री की । मनु यह भी कहते हैं कि पहिले ज़माने में सभ्य समाजमें यह चाल नहीं थी और न इस ज़माने में है । शुल्ककी तौरपर जो धन पतिके पाससे लड़की का पिता या माता लेती है वह अपने पास रखनेके उद्देशसे नहीं लेती बक्लि उसे लड़की को लौटा देती है इसलिये वह धन स्त्रीधन है अगर लौटाया नहीं जाता तो स्त्रीधन नहीं होता । जी० सी० सरकारने अपने हिन्दूलॉके 3 ed. P. 365. में कहा है कि बङ्गाल और संयुक्त प्रान्तमें वरका मूल्य (ठहरौनी) की जो पृथा है उसमें मिला हुआ द्रव्य स्त्रीधन माना जाना चाहिये अर्थात् कन्या की तरफ से जो धन, लड़का व्याहने के बदले में ठहरौनी का जो धन है वह स्त्रीधन मानना चाहिये । मगर क़ानूनमें इसकी व्यवस्था नहीं की गयी है । (३) आधिवेदनिक - अर्थात् वह धन जो पति अपना दूसरा विवाह करनेके समय पहिली स्त्रीको हरजाने के तौरपर दे । देखो मिताक्षरा - अधिवेदनिक अधिवेदन निमित्तम् अधिविन्न स्त्रियै दद्यादिति । तथा दायभागे - यच्च द्वितीय स्त्री विवाहार्थिना पूर्व स्त्रियै पारितोषिकं धनं दत्तं तदाधिवेदनिकन् अधिक स्त्रीलाभार्थत्वात्तस्य । ( ४ ) अन्वाधेयक - अर्थात् वह धन जो किसी स्त्रीको विवाहके पश्चात् अपने या अपने पति के कुटुम्बियों से मिले, देखो मिताक्षरा अन्वाधेयकं परिणय नादनुपश्चादाहितं दत्तम् उक्तंच कात्यायनेन विवाहात् परतोयच्च लब्धं भतृकुलात्स्त्रिया, अन्वाधेयं तद्रव्यं लब्ध पितृ कुलात्तथेति, स्त्रीधन परिकीर्तित मितिगतेन सम्बन्धः ।
SR No.032127
Book TitleHindu Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shukla
PublisherChandrashekhar Shukla
Publication Year
Total Pages1182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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