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________________ उत्तराधिकार [ नवां प्रकरण सपिण्डके मध्य में जो बहुत समीपी सपिण्ड पुरुष अथवा स्त्री होवे उसे मृतपुरुषका धन मिलता है और जब ऐसा वारिस न हो तो सपिण्डकी संतान में और उसके भी न होनेपर समानोदकों को और पीछे आचार्य तथा शिष्यको जायदाद मिलेगी । इस श्लोक में कहा गया है कि सबसे नज़दीकी सपिण्ड को उत्तराधिकार मिलता है यह शब्द मिताक्षराला के वरासत के क्रमका मूल है । दफा ५७८ उत्तराधिकार किस क्रमसेचलता है ६८० हिन्दुओंके यहां उत्तराधिकार, उस जायदादका जो इस किताबकी दफा ५.६५ में बताया गया है, पहिले सपिण्डमें होता है, यानी लबसे पहिले सपिण्ड जायदाद पाता है, सपिण्डके न होनेपर 'समानोदक' और समानोदकके न होने पर बन्धु जायदाद पाते हैं । बन्धुके न होनेपर आचार्य और शिष्यका हक़ है संपिण्डका विषय नीचे देखिये - दफा ५७९ सपिण्ड शब्दका अर्थ इस किताब की दफा ४७ में 'सपिण्ड' शब्दका अर्थ विस्तारसे कहा गया है । वही अर्थ यहां पर भी समझिये । सारांश यह है कि जिसका शरीर अपने शरीरके साथ एक हो उसे सपिण्ड कहते हैं । दफा ५८० दो तरह के सपिण्ड सपिण्ड दो तरह के होते हैं, एक' गोत्रज सपिण्ड' दूसरा भिन्न गोत्रज सपिण्ड' | 'गोत्रज सपिण्ड' से यह मतलब है कि अपने गोत्रका हो और सपिण्ड हो तथा भिन्न गोत्रज सपिण्ड से यह मतलब है कि अपने गोत्रका न हो और सपिण्ड हो । गोत्रका फैलाव बहुत बड़ा है: मगर सपिण्डका फैलाव उसी हद तक है जहां तक कि शरीरके अवयवोंका सम्बन्ध मिलता हो । भिन्न गोत्रज सपिण्ड' को बन्धु कहते हैं- देखो दफा ४७ . स्त्रीको अपना गोत्र छोड़ देना - स्त्री विवाह संस्सार द्वारा अपने पिता के गोत्रको छोड़ देती है और अपने पतिके गोत्र को ग्रहरण करती है और अपने पति के गोत्रज सपिण्डकी गोत्रज सपिण्ड हो जाती है, यानी उसके पतिके वंशज उसके बंशज हो जाते हैं- भगवानदास बनाम गजाधर AI. R. 1927 Nag. 68. दफा ५८१ मिताक्षरा के अनुसार गोत्रजसपिण्ड और भिन्न गोत्रज सपिण्ड दफा ४७ में बताया जाचुका है कि' गोत्रज सपिण्ड' और भिन्न गोत्रज सपिण्ड' कौन रिश्तेदार होते हैं। दफा ५८० में बताया गया कि 'भिन्न गोत्रज
SR No.032127
Book TitleHindu Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shukla
PublisherChandrashekhar Shukla
Publication Year
Total Pages1182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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