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________________ ५७४ पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्जा [सातवां प्रकरण २-बाप, मेनेजर और मुखियाकी हैसियतसे मुश्तरका जायदादको अपनी स्थिति सुधारने या परिवारकी ज़रूरतके लिये इन्तकाल कर सकता है इसके सिवाय उसे कोई अधिकार रेहन करने या बेच देनेका नहीं है किंतु मौरूसी कर्जा यानी पैतृक ऋणमें ऐसा हक़ बना रहता है (अब प्रश्न यह है कि पैतृक ऋण कौन है ? देखो 'नोट' ) जो क़र्जा बापने पैतृक जायदाद रेहन करके लिया हो वह पैतृक ऋण नहीं है लेकिन अगर ऐसा कर्जा खान्दानकी ज़रूरतके लिये लिया गया हो तो है । पैतृक ऋणके रेहननामेको जायज़ साबित करनेके लिये केवल पहलेका क़र्जा होनाही ज़रूरी नहीं है बल्कि यह मी साबित करना चाहिये कि वास्तवमें वह क़र्जा लिया गया था। ३-मिताक्षराके अनुसार पुत्र और पौत्रपर अपने बाप और दादाके सम्बन्धमें जो धार्मिक कर्तव्य माने गये हैं कि वे उनका कर्जा चुकावें, बाप और दादाकी जिन्दगीमें कर्जे उन्हें पावन्द नहीं करते। ४-ऐसे रेहनके मामलेमें जहां कानूनी ज़रूरत बयानकी जाती हो तो बार सबत उसपर होगा जिसके हलकी रक्षा उस जरूरत बयान करनेसे होती हो; देखो--साहू रामचन्द्र बनाम भूपसिंह (1917) 19 Bom.L.R. 498; 31 All. 176.वह कर्ज जोकि संयुक्त खान्दानकी ज़मानतपर लिया गया हो,पीछे के कर्जके प्रमाणमें पूर्वजोंका कर्ज है-छोटूराम भीखराज बनाम नारायन 90 I. C. 210. रेहननामेके पहिले--सन्मुख पांडे बनाम जगन्नाथ पांडे 83 I. C. 838; A. I. R. 1924 All. 708. कर्ज--पूर्वजोंका क़र्ज-संयुक्त खान्दानकी जायदाद--मेनेजर द्वारा रेहननामा--आवश्यकता--प्रतापसिंह बनाम शमशेर बहादुरसिंह 10 0. & A. L. R. 1389; 87 I. C. 66. पूर्वजोंका क़र्ज--पिता द्वारा किये हुये ऋणकी जिम्मेदारी पुत्रोंपर होने के लिये दो बातोंका होना आवश्यक है। प्रथम यह कि यह नालिशके मामले के पहिले लिया गया हो और दूसरे यहकि यह बहैसियत संयुक्त जायदादके मालिकके अतिरिक्त लिया गया हो या जमानत दीगई हो या इस प्रकारकी संयुक्त जायदादसे उसका प्राप्त होना समझा गया हो--सुरेन्द्रनाथ पांडे बनाम वृन्दाबन चन्द्र घोष A. I. R 1925 Cal. 545. पहिलेका ऋण -उस रेहननामेके ऋणके पहिलेका, जिसके सम्बन्धमें नालिश द्वारा निर्णय हो रहा हो, ऋण पिताका ऐसा ऋण नहीं है जिसकी पाबन्दी पुत्रपर हो सके, किन्तु पिताके पिता (बाबा) के साझी द्वारा किया हुआ ज़बानी ऋण, जिसकी पाबन्दी बाबा पर रही हो, उसकी पाबन्दी पुत्रके पुत्र (पोते) पर इस प्रकार होती है जैसे कि वह पिदरी कर्ज हो--रामरतन मिश्र षमाम कपिलदेवसिंह 83 I. C. 417; A. I. R. 1923 All. 20.
SR No.032127
Book TitleHindu Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shukla
PublisherChandrashekhar Shukla
Publication Year
Total Pages1182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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