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________________ तरफ चला गया, न भोग से मिला न त्याग से मिला। कहीं और भी कुछ मौलिक बात है जो मेरी दृष्टि में नहीं पड़ रही है। ऐसे जड़ों को पकड़कर लटके थे कि पास से कुछ ग्रामीण स्त्रियां गांव का गीत गुनगुनाती निकलती थीं। उनके गीत के स्वर थे सितार के तारों को ढीला मत छोड़ दो स्वर ठीक नहीं निकलता पर उन्हें इतना कसो भी मत कि टूट जायें जो सदगुरुओं के पास नहीं हो सका था वह उन गंवार स्त्रियों के गीत को सुनकर हो गया| एक किरण फूटी। जड़ से लटके - लटके निरंजना में बुद्ध को बोध हुआ कि मैं अतियों के बीच तो चला गया, मध्य में नहीं रुका। शायद मार्ग मध्य है। उसी रात, जैसे एक दिन राज्य छोड़ दिया था, उन्होंने त्याग भी छोड़ दिया। जैसे एक दिन धन छोड़ दिया था वैसे ही उन्होंने ध्यान भी छोड़ दिया। जैसे एक दिन संसार छोड़ दिया था वैसे ही निर्वाण की कामना भी छोड़ दी। और उसी रात घटना घटी। सुबह गौतम बुद्ध हो गये। मन प्रबुद्ध हुआ गौतम बुद्ध हुआ। एक जागरण ! जागरण घटा मध्य में। जिन्होंने भी सत्य को जाना है उन सभी ने अति को वर्जित किया है। अति सर्वत्र वर्जयेत। और मन अति के प्रति बड़ा आतुर है। एक अति से दूसरी अति पर जाना मन के लिए बड़ा सुगम है। इससे ज्यादा और कोई सुगम बात नहीं। घड़ी के पेंडुलम की तरह है- बायें से दायें, दायें से बायें डोलता रहता। लेकिन जब मध्य में रुक जाता तो घड़ी रुक जाती। घड़ी रुक गई, समय रुक गया। कालातीत हुए। वहीं है समाधि । वहीं है समाधान | इन सूत्रों को समझें। पहला सूत्र है: निरोधादीनि कर्माणि जहांति जडधीर्यदि । मनोरथान् प्रलापांश्यच कर्तुमाम्नोत्यतत्कणात्।। 'यदि अज्ञानी चित्तनिरोधादि कर्मों को छोड़ता भी है तो वह तत्क्षण मनोरथों और प्रलापों को पूरा करने में प्रवृत्त हो जाता है। ' ऐसा हमारा मन है। किसी तरह अगर भोग छोड़ते हैं तो योग में प्रवृत्त हो जाते हैं। फिर अगर कोई ज्ञानी मिल जाये, सत्युरुष मिल जाये और कहे कि क्या पागलपन में पड़े हो ? त्याग से कहीं होगा? तो हम तत्क्षण त्याग भी छोड़ देते हैं। फिर हम भोग में लौट जाते हैं। अष्टावक्र तुम्हें सावधान कर रहे हैं इस सूत्र से कि मेरी बातों को सुनकर तुम यह मत समझ लेना कि मैं तुम्हारे भोग का समर्थन कर रहा हूं मैं तो तुम्हारे त्याग का भी समर्थन नहीं कर रहा हूं तुम्हारे भोग के समर्थन की तो बात ही नहीं है। अष्टावक्र तुम्हारा समर्थन कर ही नहीं सकते। और यही अज्ञानी की जड़ता है। वह हर चीज को अपने समर्थन में लेता है। वह सोचता है कि चलो, धन से नहीं मिला तो ध्यान से, धर्म से, दान से। पद से नहीं मिला तो त्याग से। सुख-सुविधा
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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