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________________ बिना जवानी हो सकती है? कोई उपाय नहीं है। खेल तो वंद्व से ही होता है, दो में टूटकर ही होता है। खेल तो विरोधों में ही होता है। अगर एकरस रह जाये स्थिति तो खेल बंद हो गया। उसी एकरसता को तो हम निर्वाण कहते हैं। संसार खेल है और निर्वाण खेल के बाहर हो जाना। जो समझ गया राज, और जिसने देख लिये सब पहलू और उसने कहा, इसमें कुछ नहीं है, इसमें हार-जीत सब बराबर? है। कोई हारता, कोई जीतता, लेकिन अंततः हिसाब में सब बराबर है। न कोई जीतता, न कोई हारता। कोई जागता, कोई सोता। कोई पैदा होता, कोई मरता। लेकिन अंततः खेल सब बराबर है। आखिर में न कोई मरता, न कोई जीता; न कोई जागता, न कोई सोता। अंतिम रूप में एक ही बचता है, दो नहीं। जिसने ऐसा देख लिया वह खेल के बाहर हो गया। या हो सकता है परमात्मा उसको खेल के बाहर कर देता है कि बाहर निकलो। अब तुम बड़े हो गये। अब तुम खेलने के लायक नहीं रहे। अब तुम बुद्धपुरुष हो गये अब तुम हटो। बच्चों को खेलने दो, बीच-बीच में न आओ। तो उनको हटा लेता है। मगर है तो खेल ही। हो न फरियाद भी सैयाद की मर्जी यह है जुल्म पर जुल्म सहे मुंह से कुछ भी न बोलें __ वह जो खिला रहा है, उसकी मर्जी यह है कि तुम दुख को भी पी जाओ ऐसे, जैसे सुख है। जहर को भी पी जाओ ऐसे, जैसे अमृत है। हो न फरियाद भी सैयाद की मर्जी यह है जुल्म पर जुल्म सहे मुंह से कुछ भी न बोलें शिकायत चली जाये। लीला मानने का अर्थ है, अब हमारी कोई शिकायत नहीं है। खेल ही है न! तो गंभीरता से लेने की कोई जरूरत नहीं। हारे -जीते सब बराबर है। हारे तो हम हारे, जीते तो हम हारे। जीते तो हम जीते, हारे तो हम जीते। यहां कोई दूसरा है ही नहीं। यहां एक ही अपने को दो में बांटकर खेल खेल रहा है! यह जो छिया-छी हो रही है, एक के ही बीच हो रही है। परमात्मा ही भाग रहा है, छिप रहा है। परमात्मा ही भाग रहा, खोज रहा। यहां खोजनेवाला और खोजा जानेवाला दो नहीं हैं। सुख के दिवस दिये थे जिसने देन उसी की ये दुख के भी दिन जिस घट से छलकी थी मदिरा शेष उसी घट के ये विषकण यह अचरज की बात न कोई सीधा-सादा खेल प्रकृति का मधु ऋतु से विक्रय पतझर का सदा किया करता है मधुबन
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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