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________________ कर रहा है; डाल रहा है किसी तरह । हिसाब लगा रहा है दुकान का ग्राहकों से बात कर रहा है, हिसाब-किताब, बही-खाते कर रहा है भीतर, इधर भोजन डाले जा रहा है। यह भोजन हुआ यांत्रिक तो भोजन भी यंत्रवत हो गया। फिर कोई व्यक्ति बड़े मनोभाव से.. किसी ने बड़े प्रेम से भोजन बनाया है। तुम्हारी मां ने बड़े प्रेम से भोजन बनाया है, कि तुम्हारी पत्नी दिन भर तुम्हारी प्रतीक्षा की है, ऐसा अपमान तो न करो उसका! इतने भाव से बनाये गये भोजन का ऐसा तिरस्कार तो न करो कि तुम खाते - बही कर रहे हो, कि तुम भीतर-भीतर गणित बिठा रहे हो, कि तुम यहां हो ही नहीं कोई मन से भोजन करता है तो भोजन भी मांत्रिक हो जाता है। तब सब हटा दिया। कहीं और नहीं, यहीं है। बड़े मनोभावपूर्वक, बड़ी तल्लीनता से, बड़े ध्यानपूर्वक, बड़ी अभिरुचि से, स्वाद से, सम्मान से। और कोई ऐसा भी भोजन करता जो आध्यात्मिक । उपनिषद कहते हैं, अन्न ब्रह्म - अन्न ब्रह्म है। यह ऋषियों ने भोजन भी आध्यात्मिक ढंग से किया होगा- तांत्रिक। क्योंकि भोजन भी वही है । हम उसी को तो पचाते हैं। हम भोजन में उसी का तो स्वाद लेते हैं। भोजन में वही तो हमारे भीतर जाकर जीवन का नवसंचार करता, नये रस से भरता, पुनरुज्जीवित करता। जो मुर्दा कोष्ठ हैं उन्हें बाहर फेंक देता, नये जीवित कोष्ठ निर्मित कर देता। तो परमात्मा भोजन से भीतर आता है- तांत्रिक । ऐसे तुम समझो प्रत्येक क्रिया तीन तल पर है। कोई आदमी रास्ते पर घूमने गया और हजार-हजार विचारों में उलझा - यांत्रिक । कोई रास्ते पर घूम रहा, विचारों में उलझा हुआ नहीं। सुबह की हवा उसे छूत, संवेदनशील, सुबह का सूरज अपनी किरणें बरसात, पक्षी गुनगुनाते। वह इन सबको सुन रहा मंत्रमुग्धा मस्ती में जा रहा - मांत्रिक । और फिर कोई ऐसे भी जा सकता है कि हर हवा का झोंका परमात्मा का झोंका मालूम पड़े। और हर किरण उसकी ही किरण मालूम पड़े। और हर पक्षी की गुनगुनाहट उसके ही वेदों का उच्चार, उसके ही कुरान का अवतरण - तो तांत्रिक । तुम अपने जीवन की प्रत्येक क्रिया को तीन में बांट सकते हो। ध्यान रखना, यंत्र में ही मत मर जाना। अधिक लोग यंत्र की तरह ही जीते, यंत्र की तरह ही मर जाते। बहुत थोड़े से धन्यभागी मांत्रिक हो पाते हैं–कवि, संगीतज्ञ, नर्तक । बहुत थोड़े से लोग! और वे भी बहुत थोड़े-से क्षणों में, चौबीस घंटे नहीं। चौबीस घंटे तो वे भी यांत्रिक होते हैं। कभी-कभी किसी क्षण में, किसी पुलक में, जरा-सा द्वार खुलता, जरा-सा झरोखा खुलता और उस तरफ का जगत झांकता उस आयाम का प्रवेश होता। क्षण भर को एक कविता लहर जाती, फिर द्वार बंद हो जाते हैं। फिर बहुत विरले लोग हैं - कृष्ण और बुद्ध और अष्टावक्र - बहुत विरले लोग हैं करोड़ों में कभी एक होता, जो तांत्रिक रूप से जीता। जिसका प्रतिपल दो आकाशों का मिलन है - प्रतिपल! सोते, जागते, उठते, बैठते जो भी उसके जीवन में हो रहा है, उसमें अंतर और बाहर मिल रहे हैं, परमात्मा और प्रकृति मिल रही है, संसार और निर्वाण मिल रहा है। परम मिलन घट रहा है। परम उत्सव हो रहा है। रसो वै सः । वैसी ही अवस्था में किसी ने कहा है, परमात्मा रसरूप है। महोत्सव हो रहा है।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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