SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ या फिर महामूर्ख है। जो भी हो, इसको सजा दी जाये। इसके गले में एक तख्ती लटका दी जाये कि यह आदमी धूर्त है। और गधे पर बिठालकर इसकी सवारी गांव में घुमा दी जाये ताकि लोग लें कि इस तरह का काम कोई दुबारा न करे। मगर वह तो बड़ा प्रसन्न है। जब उसके गले में तख्ती लटकाई तो उसने कहा, हद हो गई! मुझ गरीब आदमी का कैसा स्वागत हो रहा है। और जब गधे पर उसे बिठाला गया तब तो उसकी मगनता का अंत न रहा। उसने कहा, ये लोग भी आश्चर्य जनक हैं- क्योंकि वह गरीब आदमी, घर पर गधे पर ही बैठता था। तो उसने सोचा हद है, इन लोगों ने पता भी कैसे लगा लिया कि मैं गधे पर ही बैठता हूं? और अब मेरी शोभायात्रा निकल रही। और बच्चे शोरगुल मचाते और लोग हंसते और पीछे चलते और बड़ा जुलूस चला। और वह बड़ी अकड़ से बैठा। सिर्फ एक बात मन में उसके खटकने लगी कि जब मैं लौटकर अपने गाव में कहूंगा तो कोई मानेगा नहीं कि ऐसा ऐसा स्वागत हुआ। आज अगर कोई एक भी आदमी मेरा गांववाला होता तो मजा आ जाता। अब यह हो भी रहा है स्वागत तो बेकार है। यहां कोई मुझे जानता नहीं। और जहां लोग मुझे जानते हैं वहां कोई मानेगा नहीं। तभी उसने देखा कि भीड़ में एक आदमी उसके देश का खड़ा है। वह आदमी कोई दस-बीस साल पहले आ गया था। तो वह बड़ा खुश हुआ उसने कहा, देखते हो भाई, कैसा मेरा स्वागत हो रहा है। वह आदमी तो उसकी भाषा समझता है। वह जल्दी से भीड़ में सरक गया । वह इसलिए भीड़ में सरक गया कि यह मूड समझ रहा है कि स्वागत हो रहा है। वह इस देश की भाषा भी समझने लगा है। और कोई यह न पहचान ले कि मैं भी इसी आदमी के ऐसा न समझे कि मैं भी धूर्त हूं। तो वह भीड़ में चुपचाप सरक गया। देश का रहनेवाला हूं कोई मुझे भी और यह गधे पर बैठा आदमी सोचा, हद हो गई ईर्ष्या की भी! मेरा स्वागत देखकर जलन पैदा हो रही है इसको । इसका कभी स्वागत नहीं हुआ मालूम होता बीस साल हो गये आये हुए तुम्हें कोई गाली देता, गाली तुम्हारे भीतर विचारों का एक जाल पैदा करती है। अगर तुम गाली को शांतभाव से सुन सको और तुम्हारे भीतर विचार का कोई जाल पैदा न हो. गाली में नहीं है दश । क्योंकि गाली अगर तुम्हारी समझ में न आये तो कोई अड़चन नहीं है। इसलिए गाली में दंश नहीं है। दंश तो तुम्हारे विचार की प्रक्रिया में है। जब भीतर विचार चलने लगे तो तुम पीड़ित हुए किसी ने सम्मान किया तो तुम प्रफुल्लित होते हो। सम्मान में नहीं है प्रफुल्लता। तुम्हारे भीतर विचारों की जो तरंगें उठने लगती हैं, उनमें है। ज्ञान सुख और दुख में, सम्मान - अपमान में निर्विचार बना रहता है। जो होता उसे देख लेता लेकिन उसको कोई बहुत मूल्य नहीं देता। तटस्थ बना रहता है। संताप से मुक्त हो जाता है। संताप हम पैदा करते हैं सोच-सोचकर । हम संताप के लिए बड़ी मेहनत करते हैं तब पैदा होता है। हम ऐसे दीवाने हैं कि बीस साल पहले किसी ने गाली दी थी, अब भी उसको सम्हालकर रखे हैं धरोहर की तरह, जैसे कोई हीरा - जवाहरात हो। अभी भी दिल में चोट आ जाती है। अभी भी याद कर
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy