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________________ ऊपर गयी बात, लेकिन जनक एक कदम और ऊपर जाते हैं। वह कहते हैं, मैं अज्ञानी हूं यह भी कैसे कहूं? जानने को कुछ नहीं बचा तो न जानने को भी कुछ नहीं बचा। जान और अज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए न तो मैं कह सकता हूं कि मैं बोध को उपलब्ध हुआ न मैं कह सकता हूं मैं मूढ़ हां दोनों गये, दो गये। जो बचा है वह निर्विशेष है, विशेषणशून्य है, निराकार है। अब उसके ऊपर कोई भी नाम नहीं थोपा जा सकता। अब उसे कोई रूप नहीं दिया जा सकता। अब उसका कोई भी क्लासीफिकेशन, किसी भी कोटि में उसे रखने का उपाय नहीं है। 'सर्वदा निर्विचार रूप मुझको कहां यह व्यवहार है और कहां वह परमार्थता है, अथवा कहां सुख है, कहां दुख है?' क्व चैष व्यवहारो वा क्व च सा परमार्थता। क्व सुखं क्व च वा दुःखं निर्विमर्शस्य मे यदा। 'मुझ निर्विचार रूप में.। निर्विमर्शस्य मे सदा। जहां कोई विचार और विमर्श नहीं उठता, जहां सब शून्य और शात हुआ है, जहां झील पर एक भी तरंग नहीं रही-झील बिलकुल विश्रांत हो गयी, शात हो गयी-अपने में लीन बैठा हूं, ऐसी इस शून्य की दशा में जिसको झेन फकीर नो -माइड कहते हैं, चित्तमुक्ति की दशा, जिसको कबीर ने अ-मनी दशा कहा है, नानक ने उन्मनी दशा कहा है, मन से मुक्त हो गयी जो दशा। जब तक मन है तब तक तरंग है। मन एक तरह की तरंगायित अवस्था है। मन का अर्थ है, झील पर बहुत लहरें उठ रही हैं। न-मन का अर्थ है, सब लहरें शांत हो गया, झील बिलकुल दर्पण की तरह मौन हो गयी, जरा भी तरंग नहीं होती। सतह कंपती ही नहीं। अकंप हो गई। ऐसी जो मेरी निर्विचार रूप दशा है, इसमें कहां व्यवहार और कहां परमार्थ? समझना। व्यवहार और परमार्थ शब्द दार्शनिकों के शब्द हैं, पारिभाषिक शब्द हैं। दार्शनिक कहते हैं, जगत व्यवहार रूप से सत्य है और परमार्थ रूप से असत्य है। परमात्मा परमार्थ रूप से सत्य है और व्यवहार रूप से असत्य है। यह दार्शनिक तरकीब है, जिससे दो विपरीत को मिलाने की चेष्टा की जाती है। जैसे पश्चिम में एक विचारक हुआ बर्कले। उसने घोषणा की-ठीक शंकर जैसी घोषणा की कि जगत माया है। वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है। विचार ही का अस्तित्व है, वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं है। वह डाक्टर जानसन के साथ घूमने गया था, रास्ते पर उसने उनसे कहा कि मैं एक किताब प्रकाशित रहा हूं उसमें मैंने सिद्ध किया है कि वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है, केवल विचार का अस्तित्व है। डाक्टर जानसन जिद्दी किस्म का आदमी था, उसने एक पत्थर उठाकर और बर्कले के पैर पर दे मारा। लहूलुहान हो गया पैर खून बहने लगा और बर्कले उसे पकड़कर बैठ गया। जानसन हंसने लगा, उसने कहा, वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है, तो इस पत्थर के कारण चोट कैसे लगी? खून कैसे बहा? बर्कले कोई उत्तर न दे सका।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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