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________________ है, तो अब इसके स्वस्थ होने की संभावना है। वह तो लेकर कागज-कलम बैठ गया। चिकित्सक तो बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि अब उसने सब जो पागलपन था सब छोड़ दिया। शोरगुल मचाता था, नाचता -कूदता था, चीखता-चिल्लाता था, सब बंद हो गया। वह तो बस सुबह से उठे तो अपने कागज-कमल लेकर लिखने में लग जाए। उसने पांच सौ पेज लिख डाले। और इन दिनों में –महीनों तक यह काम जारी रहा-वह बिलकुल शात हो गया। चिकित्सकों ने तो समझा कि यह आदमी अब ठीक हो गया, इसका कोई पागलपन शेष नहीं रहा। जब किताब पूरी हो गयी तो उस पागल ने अपने प्रमुख चिकित्सक को कहा कि आप मेरा उपन्यास पढ़ना चाहेंगे? जरूर, उसने कहा। वह देखना भी चाहता था कि क्या लिखा है। शुरू किया उसने पढ़ना। पहली लकीर थी कि एक सेनापति छलांग लगाकर अपने घोडे पर चढ़ा और बोला-चल बेटा, चल बेटा, चल बेटा! और फिर पांच सौ पेज तक यही था-चल बेटा, चल बेटा! वह तो घबड़ा गया, पन्ने उल्टे, मगर चल बेटा! पांच सौ पेज! वह भागा हुआ आया उसने कहा कि यह मामला क्या है, यह किस प्रकार का उपन्यास है? उसने कहा, क्या कहो, घोड़ा जिद्दी, करो क्या! घोड़ा चले ही नहीं। सेनापति कहता रहा-चल बेटा। आखिर मैं भी थक गया तो मैंने फिर उपन्यास समाप्त कर दिया। तो कुछ ऐसे घोड़े भी हैं कि पांच सौ पेज तक भी अगर तुम चल बेटा, चल बेटा कहो, न चलें। न तो कोई प्रत्यक्ष तैयारी की जरूरत है, न कोई अप्रत्यक्ष तैयारी की जरूरत है। सिर्फ बोध, सिर्फ समझ मात्र काफी है। और जिन्होंने बहुत श्रम से पाया है उन्होंने भी पाने के बाद पाया कि यह तो बिना श्रम के मिल सकता था, हमने श्रम व्यर्थ ही किया। इसका कोई संबंध श्रम से है ही नहीं। बुद्ध को जब मिला और जब लोगों ने पूछा कि आपको कैसे मिला तो बुद्ध ने कहा, मत पूछो। क्योंकि जो मैंने किया, उससे मिला ही नहीं। यह तो मुझे बिना किये भी मिल सकता था। लेकिन चूक होती रही, क्योंकि मैं खोजता रहा। खोजने की वजह से चूकता रहा। जिस दिन मैंने खोज छोड़ दी और बोधि तले, बोधिवृक्ष के नीचे बैठ गया, सब खोज छोड़कर, उसी क्षण हो गया। जब बुद्ध वापिस अपने घर आए बारह वर्ष के बाद तो उनकी पत्नी ने पूछा कि मैं एक ही प्रश्न पूछना चाहती हूं और आप सचाई से जवाब दे देना| जो आपको महल के बाहर जाकर मिला जंगल में, क्या यहीं नहीं मिल सकता था अगर आप यहीं रहे होते तो? अगर घर में ही बने रहते तो मिल सकता था या नहीं? बुद्ध ने कहा, मिल सकता था। यह समझने की बात है कि बुद्ध ने कहा, यहां भी मिल सकता था। जाना अनिवार्य नहीं था। गया, यह दूसरी बात है। गया, वह मेरी भूल थी। क्योंकि परमात्मा अगर कहीं मिल सकता है तो यहां भी मिल सकता है। कोई खास वटवृक्ष के नीचे ही थोडे परमात्मा बसता है। झोपडे में ही थोडे बसता है, जंगल में ही थोड़े बसता है। ऐसी कोई जगह कहां है जहां परमात्मा न हो? ऐसी कोई जगह है, जहां परमात्मा न हो गुम तो फिर सभी जगह मिल सकता हैं। ऐसा समझो कि मिला ही हुआ है। अष्टावक्र का सार यही है कि परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है। तुम्हारे स्वयं का छंद, तुम्हारे भीतर
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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