SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैं सभी दवंदव के पार। जहां-जहां दो हैं, वहा-वहां मैं नहीं। इसे समझना। हमारे जीवन में जो भी अनुभव हैं, सब दो के। इसलिए जहां-जहां दो हों, वहां समझ लेना कि तुम नहीं हो, वह तुम्हारा स्वरूप नहीं। मत्स्वरूपे निरंजने। वह तुम्हारा वास्तविक स्वरूप नहीं। जैसे, जहां-जहां दुख है, वहां-वहां सुख है। जहां-जहां दिन, वहां-वहां रात। जहां-जहां जीवन, वहां -वहां मौत। जहाँ-जहां पुरुष, वहां-वहां स्त्री। जहां-जहां स्त्री, वहा -वहा पुरुष। जहां शांति, वहां अशांति। जहां बचपन, वहां बुढ़ापा। जहां बनना, वहां मिटना। जहां सृजन, वहां विध्वंस। तो जहां -जहां दो हो जाएं, वहां -वहा तुम्हारा निरंजन स्वरूप नहीं है। इन दो में से तुम एक को चुन लेते हो| जैसे कोई कहता है, मैं पुरुष हूं, इसने एक चुन लिया। कोई कहता है, मैं स्त्री हूं, उसने भी एक चुन लिया। बुद्ध से किसी ने पूछा है कि बुद्धत्व के बाद आप पुरुष हैं या स्त्री बुद्ध ने कहा, अब मैं चुनाव नहीं करता हूं। बस इतना कहा कि अब मैं चुनाव के बाहर हूं। अब न मैं स्त्री हूं, न पुरुष हूं। अब मैं बस हूं। वे चुनाव भी तादात्म्य थे। उन चुनावों के माध्यम से भी -लेप हो जाता था। तुम जवान हो या के? अगर चुन लिया, तो गिरे। अगर अचुनाव में खड़े रहे, चुना ही नहीं तुम कभी जरा इस पर सोचो। यह तुम्हारे कितने करीब है बात लेकिन फिर भी तुम चूकते हो कभी आंख बंद करके तुमने सोचा कि मैं जवान हूं या का? हो सकता है तुम जवान हो, हो सकता है तुम के हो, कभी आंख बंद करके सोचा कि मैं जवान हूं या का? तुम भीतर बड़े उसमें पड़ जाओगे कि मैं जवान या का! देह चाहे बूढी हो गयी हो, तो भी भीतर बूढेपन का कभी अनुभव होता है? देह चाहे जवान हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? तुम जब बच्चे थे तब भी तुम भीतर ऐसा ही अनुभव करते थे जैसा जवानी में अनुभव करते हो, जैसा बुढ़ापे में अनुभव करोगे भीतर कोई अंतर नहीं पड़ता। सब रूपांतरण बाहर होते रहते हैं। देह बदलती रहती है, भीतर तो अरूप है। भीतर तो शाश्वत है। भीतर तो नित्य है। तुम बाहर से सोचते, मैं पुरुष, मैं स्त्री, कभी भीतर भी झांक कर देखा कि वहां मैं कौन हूं? स्त्री-पुरुष का भेद तो शरीर पर है, शारीरिक है। चैतन्य तो स्त्री-पुरुष नहीं हो सकता। चैतन्य पर तो कोई स्त्री-पुरुष के भेद के लक्षण नहीं हो सकते। साक्षी तो बस साक्षी है। न पुरुष, न स्त्री। एक वृद्ध जैन ने मुझसे पूछा क्योंकि जैन मानते हैं, स्त्री का मोक्ष नहीं हो सकता, स्त्री-पर्याय से मोक्ष नहीं हो सकता, पुरुष तो होना ही पड़ेगा। पुरुषों ने शास्त्र रचे, तो पुरुषों ने सभी जगह स्त्रियों को नीचे रखा। स्त्रियों को ऊपर रखने की हिम्मत, अपने साथ रखने की हिम्मत पुरुष नहीं कर पाए। तो उस जैन ने पूछा कि आप क्या कहते हैं? स्त्री का मोक्ष हो सकता है या नहीं? मैंने कहा, जहां मोक्ष होता है वहा न कोई स्त्री होती है न कोई पुरुष होता है। जब तक कोई स्त्री है और जब तक कोई पुरुष है, तब तक मोक्ष नहीं। तो न तो स्त्री का मोक्ष होता है, न पुरुष का मोक्ष होता है। यह बात गलत ही तुम कहते हो कि पुरुष का मोक्ष होता है। मोक्ष तो अचुनाव में होता है। मोक्ष तो साक्षीभाव में होता है।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy