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________________ जाग गया हो, या जैसे अंधेरे में अचानक बिजली कौंध गयी हो, या अंधे को अचानक आंख मिल गयी हो, या बहरे को कान मिल गये हों, या मुर्दा जी उठा हो, इतनी आकस्मिक घटना घटी है-चकित, विभोर। ये सारे वचन अत्यंत आश्चर्य से भरे हुए हैं। 'मेरे निरंजन स्वरूप में......।' मत्स्वरूपे निरंजने। निरंजन शब्द बड़ा बहुमूल्य है। निरंजन का अर्थ होता है, जिस पर कोई अंजन न चढ़ सके, जिस पर कोई लेप न चढ़ सके। कमल का पत्ता, कहते हैं, निरंजन है। पानी में होता है, पानी की बूंद भी पड़ी होती है तो भी पानी कमल के पत्ते को छूता नहीं। पत्ते पर पड़ी बूंद भी अलग ही होती है। पत्ता अलग होता है। छूना नहीं होता, स्पर्श नहीं होता। कितने ही पास रहे, पत्ता निरंजन है। मत्स्वरूपे निरंजने। जनक ने कहा, आज देख रहा हूं कि मैं शरीर के पास तो हूं लेकिन शरीर कभी नहीं हुआ मत्स्वरूपे निरंजने। मन. के पास तो हूं -इतने पास खड़ा हूं, सटा -सटाया खडा हूं लेकिन कभी मन नहीं हुआ। कर्म हुए, मैं पास ही खड़ा था और कभी कर्ता नहीं हुआ| भोग चले, मैं पास ही खड़ा था और कभी भोक्ता नहीं हुआ| भोग की छाया भी बनती रही, जैसे दर्पण पर छाया बनती है, तुम दर्पण के सामने आए तो चेहरा बनता है। लेकिन दर्पण पर कोई लेप नहीं चढ़ता, तुम चले गये, छाया भी गयी। यही तो फर्क है दर्पण में और कैमरे की प्लेट में। कैमरे की प्लेट में भी चित्र बनता है लेकिन लेपन होता है। तुम तो चले गये, लेकिन चित्र अटका रह गया। दर्पण पर लेपन नहीं होता, चित्र बनता है और बह जाता है। साक्षीभाव दर्पण की तरह है, कैमरे की प्लेट की तरह नहीं। अज्ञानी कैमरे की प्लेट की तरह है। जो देख लिया, उससे पकड़ जाता है। किसी ने बीस साल पहले गाली दी थी, अब भी तुम्हारे मन में गंजी चली जा रही है। अब भी तुम उसे दोहरा रहे। अब भी तुम उसे कुरेद-कुरेद कर देख लेते हो, बार -बार पीड़ा को फिर अनुभव करने लगते हो। शायद पचास साल पहले किसी ने सम्मान किया था, वह दिन आज भी भूले - भूले नही भूलता| लेपन हो गया। सारा अतीत तुम्हारे मन की प्लेट पर चढ़ बैठा है। खरोचें-ही-खरोचें लग गयी हैं। सब तरह से तुम लिप्त हो गये हो। जनक ने कहा- मक्वरूपे निरंजने-मेरे इस निरंजन रूप को देखकर चकित अहोभाव से मैं खड़ा हूं। भरोसा नहीं आता! इतना किया और मुझसे कुछ भी नहीं हुआ इतने दुख-सुख झेले और मैं अछूता रहा हूं। धन रहा, दौलत रही, गरीबी रही, बचपन था, जवानी थी, बुढ़ापा था, न-मालूम कितनी देहों में गया-कभी पशु था, कभी पक्षी था, कभी आदमी हुआ कभी पत्थर था-कितनी देहों से गुजरा, कितने रूप धरे, लेकिन फिर भी मैं निरंजन का निरंजन रहा। 'मेरे निरंजन स्वरूप में कहां पंचभूत हैं!' यह जो पांच भूतों का बड़ा विराट खेल चल रहा है, यह मुझसे बाहर है, यह मुझसे अलग है। इसका मुझमें कहीं भी प्रवेश नहीं है। प्रवेश हो ही नहीं सकता, मेरा स्वरूप ऐसा है। तुम जल को जल
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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