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________________ किंतु ठगौरी डाल गयी कुछ ऐसी पथ की भूलभुलैया जनम-जनम की जमा खो गयी जुग जुग नींद हराम हो गयी मैंने तो सोचा था अपनी सारी उमर तुझे दे दूंगा इतनी दूर मगर थी मंजिल चलते-चलते शाम हो गयी मंजिल दूर नहीं है। मंजिल तुम्हारे समाने है। चलते-चलते शाम हो गयी चले तो चूके। चलने का मतलब ही यह है कि तुमने मंजिल दूर मान ली। चलकर तो हम दूरी पर पहुंचते हैं। जो निकट से भी निकटतम है... मुहम्मद ने कहा कि जो तुम्हारी गर्दन में धड़कती हुई फड़कती प्राण की नस है उससे भी जो ज्यादा करीब है। उपनिषद कहते हैं, पास से भी जो ज्यादा पास है। जो तुम्हारे में विराजमान है। तुममें और जिसमें इंच भर की दूरी नहीं है। चलते-चलते शाम हो गयी तुम चले, तो भटके। तुम चले, तो चूके। पहुंचना हो तो रुको पहुंचना हो तो चलना मत हिलना भी मत। पहुंचना हो तो जहां खड़े हो वहीं मूर्तिवत हो जाना। गति से नहीं पहुंचता कोई सत्य तक क्योंकि सत्य कोई गंतव्य नहीं है। सत्य की कोई यात्रा नहीं होती, क्योंकि सत्य दूर नहीं है। सत्य सत्य तुम्हारी सत्ता का नाम है। सत्य तुम्हारा अस्तित्व है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं, श्रवणमात्रेण। अगर जनक अब कहे कि प्रभु, सुन ली आपकी बात, अब करूंगा, तो अष्टावक्र अपना सिर ठोंक लेते। लेकिन जनक ने यह बात ही नहीं कही। जनक ने तो धन्यवाद दिया, अपना वक्तव्य दिया। जनक ने क्या कहा? जनक ने कहा तत्वविज्ञान संदशमादाय हृदयोदरात्। नानाविधपरामर्शशल्योद्धार कृतो मया।। 'मैंने आपके तत्त्वज्ञान रूपी ससी को लेकर हृदय और उदर से अनेक तरह के विचार रूपी वाण को निकाल दिया है।' बात खतम ही कर दी। जनक ने कहा कि शल्यक्रिया हो गयी.। शल्योद्धार:। चिकित्सा हो चुकी। आपने जो शब्द कहे, वे शस्त्र बन गये। और शास्त्र जब तक शस्त्र न बन जाएं तब तक व्यर्थ हैं। आपने जो शब्द कहे वे शस्त्र बन गये और उन्होंने मेरे पेट और मेरे हृदय में जो-जो रुग्ण विचार पड़े थे, उन सबको निकालकर बाहर फेंक दिया। बात खतम हो गयी। तत्वविज्ञानाय।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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