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________________ जिंदगी दुल्हन है एक रात की हर है दूर, पता पिया का न गांव कहीं न पड़ाव कोई कहीं नहीं छांव जाए किधर डोली बारात की जिंदगी दुल्हन है एक रात की बिना तेल बाती जले उम्र का दिया बीच धार छोड़ गया निर्दयी पिया आंख बनी बदली बरसात की जिंदगी दुल्हन है एक रात की पर इस एक रात के लिए हम बड़ा जंजाल फैला लेते हैं। इस एक रात के लिए हम बड़ा संसार निर्मित कर लेते हैं। जो क्षणभंगुर है, उसके लिए हम शाश्वत को गंवा देते हैं। जो असार है, उसके लिए सार को खो देते हैं। इधर कंकड़-पत्थर बीनते रहते हैं, वहां जीवन के हीरे रिक्त होते चले जाते हैं। जोड़ लेते हैं कूड़ा-करकट मरते-मरते तक, लेकिन जीवन गंवा देते हैं। कहा है जीसस ने, तू सारी पृथ्वी भी जीत ले और अगर अपने को गंवा दिया, तो इस पाने का सार क्या है? अष्टावक्र ने जो सूत्र जनक को दिये, वे जागरण के अपूर्व सूत्र हैं। कोई समझ ले तो बस जाग गया। जनक जैसा शिष्य पाना भी बहुत मुश्किल है, दुर्लभ है। अष्टावक्र जैसा गुरु तो दुर्लभ होता है, जनक जैसा शिष्य भी बहुत दुर्लभ है। और अष्टावक्र और जनक जैसे गुरु-शिष्य का मिलन पहले कभी हुआ, उल्लेख नहीं। बाद में भी कभी हुआ, ऐसा उल्लेख नहीं। शायद दुबारा यह बात घटी ही नहीं। करीब-करीब असंभव लगता है दुबारा घटना । जैसा गुरु, वैसा शिष्य । ठीक दो स्वच्छ दर्पण एक-दूसरे के सामने रखे हैं। अष्टावक्र ने अपनी सारी बात कह दी। उंडेल दिया अपने पूरे हृदय को। जो कहा जा सकता था, कह दिया। जो नहीं कहा जा सकता था, उसे भी कहने की कोशिश की। जनक इस पूरी अपूर्व वर्षा के बाद धन्यवाद दे रहे हैं। गुरु को धन्यवाद कैसे दिया जाए? एक ही धन्यवाद हो सकता है कि गुरु ने जो कहा, वह व्यर्थ नहीं गया, समझ लिया गया। गुरु से उऋण होने का कोई और तो उपाय नहीं है। एक ही मार्ग है धन्यवाद का आभार का कि जो वर्षा हुई, व्यर्थ नहीं गयी, मेरे हृदय की झील में भर गयी है। तुमने जो श्रम किया, वह नाहक नहीं हुआ। तुमने जो मोती बिखेरे, वह मूढ़ों के सामने नहीं फेंके। वे परख लिये गये हैं। संभाल लिये गये हैं। उन्हें मैंने अपने हृदय में संजो लिया है। वे मेरे प्राणों के अंग हो गये हैं। इस बात के सूचन के लिए जनक अंतिम संवाद का समारोप करते हैं।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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