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________________ हो, मैं कुछ भी नहीं हूं तब भी तुम दवा कर रहे हो कि मैं कुछ हूं, देखो, बिलकुल ना कुछ हो गया! तुम जब कहते हो, मैं नहीं हूं तब भी तुम कहते हो मैं हूं। तुमने एक नयी तरकीब खोज ली। झेन फकीर बोकोज का एक शिष्य ध्यान कर रहा है। वह रोज ध्यान करता है, रोज सबह गरु के पास आकर निवेदन करता है, क्या अनुभव हुआ और गुरु उसे भगा देता है उसी वक्त, वह कहता है कि ये छोड़ो, फालतू बातें मत लाओ यहां। कभी लाता है कि कुंडलिनी जग गयी और गुरु कहता है, भाग यहां से! फिजूल की बातें न ला यहां, जब तक शून्य न घटे तब तक फिजूल की बातें न ला। मगर वह फिर आता है, फिर आता है कि आज हृदयकमल खुल गया और वह गुरु तो डंडा उठा लेता है। कभी वह कहता है कि सहस्रार खुल गया और गुरु उसको धक्के देकर बाहर निकाल देता है और कहता है, जब तक शून्य न खुले, तब तक तू आ ही मत। फिर महीनों बीत गये। फिर एक दिन वह आया है, अब बड़ा आनंदित है, चरणों में पड़ गया, उसने कहा कि आज वह ले आया हूं जिसकी आप इतने दिन से मुझसे अपेक्षा करते थे, आशा करते थे। आज आप निश्चित प्रसन्न होंगे। आज मैं शून्य होकर आ गया हूं। गुरु ने तो डंडा उठाकर उसके सिर पर मार दिया, उसने कहा, शून्य को बाहर फेंककर आ। वह कहने लगा, अब तो मैं शून्य होकर आ गया, अब भी हटाते हैं! तो उन्होंने कहा अभी जब तू दावा करता है कि मैं शून्य हो गया, तो दावेदार कौन है? यह नया दावा है, अहंकार की नयी शक्ल है। यह नया मुखौटा है। शून्य तो कोई तभी होता है जब शून्य भी फेंक आता है। तब कहने को कुछ भी नहीं बचता। परम शून्य तो वही है जो यह भी नहीं कह सकता कि मैं शून्य हूं। कहने की कहां गुंजाइश है! कहा कि गलत हुआ। कहा कि दावा हुआ। यही अर्थ है अष्टावक्र के इस वचन का आत्मज्ञानी है भी नहीं। अहंकार तो गया, इसलिए यह कहना तो ठीक नहीं कि आत्मज्ञानी है। नहीं है। और नहीं भी नहीं है। कयोंकि आत्मज्ञानी यह ही कह सकता कि मैं शून्य हो गया, निर- अहंकारी हो गया। आत्मज्ञानी कुछ भी नहीं कह सकता। क्योंकि कहने में तो फिर हो जाएगा। उदघोषणाएं तो सभी अहंकार की हैं। विनम्रता की उदघोषणा भी। शून्य होने की उदघोषणा भी। इसलिए बात तो बहुत सीधी-सरल है-आत्मज्ञानी न तो है, न नहीं है। नहीं है, ऐसी घोषणा भी नहीं कर सकता है, इसलिए नहीं है भी नहीं है। यह सीधे व्यावहारिक तर्क में विरोध मालूम पड़ता है, लेकिन जीवन के परमतर्क में कहीं कोई विरोध नहीं है। तीसरा प्रश्न : मैं लौट-लौटकर अतीत की और देखता रहता हूं। यह व्यर्थ है, फिर भी आदत छूटती नहीं। इसका क्या कारण हो सकता है?
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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