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________________ बैठ गये! वह खा रही और रो रही। वह उनके पैरों पर गिर पड़ी कि मुझे क्षमा कर दो, मुझसे बड़ी भूल हो गयी, मुझसे भूल ऐसी हो गयी कि अब आत्महत्या करूं तो भी शायद यह न धुलेगी। अब यह जिंदगी भर मेरी छाती में कांटे की तरह गड़ी रहेगी। चार पैसे के लिए मैंने क्या किया ! मगर ब्राह्मण चुप नहीं बैठे। उन्होंने देखा कि यह घर ले गया इसको, वेश्या को, तो वे तो राजा के पास भागे चले गये। उन्होंने जाकर काशी - नरेश को कहा कि हद हो गयी, आप भी जाते हैं इस ढोंगी के पास, वह एक वेश्या को घर लेकर बैठ गया है। बुलावा भेजा। कबीर अकेले नहीं आए, उसको साथ ही लेकर आए। वह कहे भी कि मुझे जाने दें, मुझे कहीं जाना नहीं है, अब वह और घबडाए कि अब यह सम्राट के सामने ले चला। तो कबीर ने कहा, तू फिकर क्यों करती है। जनम-जनम के बिछड़े मिल गये। वह अपनी ही लगाए जा रहे । सम्राट के दरबार में भी उसको अंदर ले गये। वहां तो वह स्त्री घबड़ा गयी । और जब सम्राट देखा कि वह वेश्या का हाथ पकड़े चले आ रहे हैं, तो वह भी थोड़ा घबडाए । उसने कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं और किस तरह अपनी प्रतिष्ठा और यश को नष्ट कर रहे हैं! उन्होंने कहा, खाक करें प्रतिष्ठा–यश! इसके पहले कि वह कुछ बोलें, वह स्त्री चिल्लायी कि क्षमा करना, पहले मुझे बोलने दो। मेरी कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है, मैं सिर्फ पैसे के पीछे यह उपद्रव किये हूं और पैर पर कबीर के गिर पड़ी और सम्राट से उसने कहा कि मुझे किसी तरह छुटकारा दिला दो। मुझे ब्राह्मणों ने उलझा दिया है। सम्राट कबीर से पूछे कि तुम कैसे पागल हो! कबीर ने कहा, अब और क्या करने का इसमें उपाय था! और मुझे तो कुछ फर्क नहीं पडता । मैं तो कर्ता नहीं हूं। तो यह खेल भी देखा । द्रष्टा तो द्रष्टा ही रहेगा। भोक्ता होने का कोई उपाय नहीं। यह तो मौका था मेरी परीक्षा का कि क्या मैं चौथे में रह सकता हूं? और मैं चौथे में ही रहा। और रत्ती भर चौथे से नहीं डिगा । यह एक स्वप्न है, इस तल पर मेरा होना नहीं है। यह जो चौथा तल है, उस चौथे तल के लिए अष्टावक्र कहते हैं सुप्तोऽपि न सुमुप्तौ । सोए तो भी ज्ञानी सोया नहीं, एक दीया जलता, एक दीया अहर्निश जलता, अखंड जलता । स्वप्नेउपि शयितो न च। देखे स्वप्न, तो भी जानता कि मैं देखनेवाला हूं देखा गया नहीं| जागरे उपि न जागर्ति। जागकर भी जागा हुआ नहीं होता, क्योंकि वह तो महारूप से जागा हुआ है। महाजागृति को उपलब्ध है, इस क्षुद्र जागृति से अब कुछ लेना-देना नहीं है। यह धोखा तो अंधों के लिए है। यह धोखा तो उनके लिए है जो जागे हुए नहीं हैं उनको लगता है यह जागृति है। जो जाग गये उनको किसी इतने बड़े शब्द का पता चलता कि यह जागृति तो नींद ही मालूम होती है। धीरस्तृप्त पदे पदे । और ऐसी जो चित्त की, चैतन्य की दशा है, वह पद-पद पर परमतृप्ति से भरी है। क्षण
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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