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________________ देखने लायक है या नहीं? अगर हो देखने लायक तो तुझसे कह दूंगा कि देख आ । तुम अगर विश्लेषण भी करोगे तो विश्लेषण के नाम पर भी तुम करोगे क्या? वही तस्वीरें देखोगे जो तस्वीरें पहले और किसी नाम से देखी थीं। अब इस बहाने देखोगे कि विश्लेषण कर रहे हैं। वही उठेगी कामवासना । अब तुम कामवासना की प्रक्रिया में उतरकर करोगे क्या ? होगा क्या? वही उठेगा क्रोध, वही होगा लोभ, अब नये नाम से विश्लेषण ! तुम डूबोगे उन्हीं गंदगियों में फिर । यह धोखा तुम किसको दे रहे हो? कामवासना का विश्लेषण करते-करते तुम कामवासना से ही भर जाओगे। क्योंकि जिस बात का तुम बहुत विचार करोगे वही बात तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होती चली जाती है। जिसका तुम बहुत देर साथ-संग करोगे, उसका परिणाम होगा, उसका प्रभाव होगा, उसमें तुम रंग जाओगे। और जितने रंगोगे, उतने सोचोगे और विश्लेषण करूं, और विश्लेषण करूं; यह विश्लेषण ऐसा ही है जैसे कोई खाज को खुजलाए। खुजलाने से खाज मिटती नहीं और बढ़ती है। बढ़ती है तो और खुजलाना पड़ता है, और खुजलाना पड़ता है तो और बढ़ती है, और बढ़ती है तो और खुजलाना पड़ता है, दुष्ट–चक्र पैदा हो जाता है। यह तो ऐसा ही है जैसे कोई घाव को बार-बार कुरेद कर देखे कि अभी तक भरा या नहीं? अब तुम कुरेद कर देखोगे तो भरेगा कैसे ! छोड़ो, विचार का कोई मूल्य ही नहीं है, दो कौड़ी का है। इसका विश्लेषण भी क्या करना। कचरे का विश्लेषण भी क्या करना! व्यर्थ का विश्लेषण भी क्या करना ! यह कोई बड़ी बहुमूल्य वस्तु थोड़े ही है, जिसका विश्लेषण करो, बैठकर हिसाब-किताब लगाओ। इसे इकट्ठा फेंक देने जैसा है। ध्यान का अर्थ होता है, जान लिया इस बात को कि विचार से कुछ मिलता नहीं। अब और विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है। आत्मविश्लेषण कौन करेगा रू अभी आत्मा है कहां? अभी तो एक विचार दूसरे विचार को तोड़ेगा। विचार से विचार लड़ा दोगे तुम। इससे बडा कोलाहल मचेगा। तुम और भी अशांत हो जाओगे। नहीं, इस झंझट में मत पड़ना । बहुत बार तो यह आत्मविश्लेषण तुम्हें पागल बना दे सकता है। पूरब कुछ और बात खोजा है, जागो! तुम चकित होओगे, जापान में झेन आश्रमों में पागलों के इलाज के लिए सदियों से एक काम उपयोग में लाया जाता रहा है। अब तो पश्चिम से भी मनस्विद पहुंचते हैं अध्ययन करने, क्योंकि उनको भरोसा नहीं होता कि यह हो कैसे सकता है! पश्चिम में तो पागल आदमी का मनोविश्लेषण वर्षों तक करके भी कुछ खास लाभ नहीं होता। छोटे-मोटे फर्क होते हैं। कोई मौलिक फर्क नहीं पड़ता । एक आदमी का मनोविश्लेषण तीन साल तक हुआ और तीन साल के बाद जब किसी ने उससे पूछा कि कहो, मनोविश्लेषण से कितना लाभ हुआ? उसने कहा, काफी लाभ हुआ। तो पूछने वाले ने पूछा कि क्या शराब पीने की जो तुम्हारी विक्षिप्त आदत थी, वह छूट गयी? उसने कहा, आदत तो नहीं छूटी, लेकिन अब पहले जो अपराध - भाव मालूम होता था, वह मालूम नहीं होता। वह अपराधभाव छूट गया। वह जो गिल्ट मालूम होती थी कि कुछ बुरा कर रहे हैं, वह बात छूट गयी । और फिर, एक बात में और फर्क पड़ा कि पहले मैं शराबघर पहुंच जाता था, जब शराबघर बंद होता तब भी पहुंच
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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