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________________ अचानक उन किवाड़ों के किनारे हास तो आया तो तुम्हारी आंसुओ से भरी आंखों और तुम्हारे कारागृह में दबे हुए चित्त के पास अगर तुम्हें कभी कोई एक स्मित, एक हास, एक उत्सव की झलक भी आ जाए, तो छोडना मत उन चरणों को। उन्हीं चरणों के सहारे तुम परममुक्ति और स्वातंय्य के आकाश तक पहुंच जाओगे। अभी तक पतझरों से ही हुआ था उम्र का परिचय चलो वातायनों से फिर मलय-वातास तो आया अभी तक तो तुम्हारी पहचान पतझड़ से ही थी। पतझड़ और पतझड़.. और पतझड़. ऐसा ही तुमने जाना था। तुम्हारे जीवन का राग आंसुओ और रुदन से भरा था। तुमने जीवन का कोई और अहोभाव का क्षण तो जाना नहीं था। नर्क ही नर्क जाना था। जिस किसी क्षण में किसी व्यक्ति के पास तुम्हें लगे-चलो वातायनों से फिर मलय-वातास तो आया। और तुम्हें ऐसा लगे कि हवा का एक झोंका आया-मलय-वातास-शुभ्र, स्वच्छ, ताजा, सुबह का, मलयाचल से चलकर, ताजा-ताजा पहाड़ों से उतरकर, ऊंचाइयों से उतरकर, तुम्हारी नीचाइयों पर, तुम्हारी घाटियों में, तुम्हारे अंधेरे में। एक हवा का झोंका जिसके पास अनुभव में हो जाए, समझना कि बुद्धत्व करीब है। कुछ घटा है। फिर दोहरा दूं ये इशारे हैं। इशारों को बहुत जोर से मत पकङ्गमा अन्यथा उनके प्राण निकल जाते हैं। इशारों को ऐसा मत पकड़ना कि उनकी फांसी लग जाए। ये परिभाषाएं नहीं हैं। परिभाषा तो हो नहीं सकती-सिर्फ इंगित हैं। इंगित को बड़ी सहानुभूति, प्रेम से अपने भीतर डूब जाने देना। तो फिर बुद्धपुरुष कितने ही भिन्न-भिन्न हों-बुद्ध हों कि महावीर हों कि कृष्ण हों कि राम हों कि जरथुस्त्र कि मुहम्मद कुछ फर्क न पड़ेगा। कुछ बातें-अनंत का अनुभव उनके पास, शांति की प्रतीति उनके पास, ताजी हवा का झोंका उनके पास, चांदनी का एक टुकड़ा उनके पास, ये इशारे भी मैंने कविता से दिये हैं। क्योंकि कविता को हृदय तक जाने की ज्यादा सुगमता है। जहां गद्य नहीं पहुंच पाता वहां पद्य प्रवेश कर जाता है। गद्य के साथ तो तुम तर्क करने लगते हो, पद्य के साथ तुम तर्क नहीं करते, उसे तुम पी लेते हो, ज्यादा आसानी से पी लेते हो, वह गले से ज्यादा जल्दी उतर जाता है। पद्य में ये टुकड़े मैंने तुमसे कहे। इन्हें याद रखने की भी बहुत जरूरत नहीं है। बस इनका स्वाद तुम्हें लग जाए। तो भूल-चूक होगी नहीं। बुद्धत्व इतनी बड़ी घटना है कि पहचान में यह तो हो ही नहीं सकता। बुद्धत्व इतनी बड़ी घटना है कि अगर तुम जरा खुले मन के हुए और गये बुद्ध के पास, तो तुम पहचान ही लोगे। परिभाषा के बिना पहचान लोगे। खतरा यही है कि लोग जाते ही नहीं। लोग इतने डरते हैं कि अगर गये तो कहीं फंस ही न जाएं, इसलिए जाते ही नहीं। दूर ही रहते हैं। ऐसी झंझट में नहीं पड़ते हैं। अगर तुम पास गये किसी बुद्धपुरुष के तो तुम पहचान ही लोगे; ये हो कैसे सकता है कि तुम न पहचानो! यह भी हो सकता है कि अंधे को सूरज दिखायी न पड़ता हो लेकिन सुबह जब सूरज की धूप फैलती है तो अंधे को उसका स्पर्श तो होगा। ऊष्मा तो अनुभव होगी। उत्ताप तो अनुभव होगा।
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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