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________________ होता है, संसार का स्मरण खो जाता है। 'जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता और जिसे शेष संसार विस्मृत हो गया है, उस महात्मा को इस बात की चिंता नहीं है कि देह रहे या जाए । ' क्योंकि उस महात्मा को पता है - देह संसार का हिस्सा है। देह मेरा हिस्सा नहीं । मैं देह नहीं हूं।' अकिंचन, स्वच्छंद विचरण करनेवाला, द्वंद्वरहित, संशयरहित, आसक्तिरहित और अकेला बुद्धपुरुष ही सब भावों में रमण करता है। ' अकिंचनः कामचारो निद्ववंश्छिन्नसंशय। असक्त सर्वभावेगु केवलो रमते बुधः । जो अकिंचन है। जिसको यह पता चल गया कि अहंकार झूठी घोषणा है। मैं कुछ हूं ऐसा जिसका दावा ही न रहा। जो दावेदार न रहा, जिसने सब दावे छोड़ दिये। जो कहने लगा, मैं तो ना कुछ हूं शून्यवत | अकिंचन, स्वच्छंद विचरण करनेवाला.. ।' जो संस्कृत शब्द है, वह बहुत अदभुत है- कामचारो। जो आचरण से मुक्त हो गया है। जिसके जीवन में अब आचरण- अनाचरण की कोई व्याख्या नहीं रही । 1 मैं निरंतर तुमसे कहता हूं कि परमज्ञान आचरणरहित होता है- करेक्टरलेस। कामचारो का वही अर्थ है। स्वच्छंद। रीति-नियम से मुक्त। स्वभाव से जीता है जो । स्फूर्ति से जीता है जो न कोई अनुशासन है उसके ऊपर कि ऐसा करना चाहिए। वही करता है जो होता है। जो होता है उसे होने देता है। जो परिणाम हैं, उन्हें स्वीकार कर लेता है। न परिणामों से बचने की कोई चिंता है, न जो हो रहा है उसे रोकने का कोई आग्रह है । न अन्यथा करने का कोई उपाय है। ' आसक्तिरहित, संशयरहित, द्वंद्वरहित और अकेला बुद्धपुरुष ही सब भावों में रमण करता है।' और तब मुक्त हो जाता है व्यक्ति अपने भीतर के सब प्रदेशों में रमण करने को। 'सब भावों में रमण करता है।' तब सारे रमण उपलब्ध हो जाते हैं। तब उसे अपनी पूरी अंतः भूमि का पासपोर्ट मिल जाता है। रुकावट नहीं है फिर उसे । वह जहां जाना चाहे भीतर जाता है, जो देखना चाहे देखता है। अन से अचेतन गर्तों में उतरता है और परम चेतन की आखिरी ऊंचाइयां छूता है। पूरी सीढ़ी का मालिक हो जाता है। आखिरी सीढ़ी रुकी है नर्क में और ऊपर की सीढ़ी रुकी है मोक्ष में। सीढ़ी के सब सोपानों पर चढ़ता है। स्वच्छंद भाव से अपनी पूरी चेतना का अनुभव करता है। इस अनुभव में ही सारे विराट के दर्शन हो जाते हैं। कहते हैं शास्त्र कि मनुष्य पिंडरूप है। इसी ब्रह्मांड का छोटा-सा पिंड है। मनुष्य के भीतर सब छिपा है जो विराट में है। अगर भीतर हम मनुष्य को पूरा देख लें तो हमने पूरे विराट को देख लिया। मनुष्य को समझ लिया तो सब समझ लिया। इस सूत्र में एक श्रृंखला है। अकिंचन, जो ना कुछ है, वही स्वच्छंद हो सकता है। अकिंचन,
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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