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________________ नदी, रेत, निर्जन हरे खेत, पोखर झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैं, हंसी जोर से मैं हंसी सब दिशाएं हंसे लहलहाते हरे खेत सारे हंसी चमचमाती भरी धूप प्यारी वसती हवा में हंसी सृष्टि सारी हवा हूं हवा में वसती हवा हूं। स्वच्छंद है हवा की भांति ज्ञानी। वसंत की स्वच्छंद हवा की भांति। उस पर न कोई रीति है, न कोई नियम, न कोई अनुशासन। आगे के सूत्र में बात साफ होगी 'जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता है और जिसे संसार विस्मृत हो गया है, उस महात्मा को इस बात की चिंता नहीं है कि देह रहे या जाए।' पततूदेतु वा देहो नास्य चिंता महात्मनः। स्वभावभूमिविश्रातिविस्मृताशेषससृते:।। 'जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता है।' अभी जिसकी मैं बात कर रहा था। जो अपने साक्षी में विश्राम करता है, जो अपने चैतन्य में विश्राम करता है, जो अपने प्रकाश में विश्राम करता है, जो अपने स्वभाव से जरा भी विपरीत नहीं होता, जो अपने स्वभाव से बाहर नहीं जाता, जो अपने स्वभाव से अन्यथा नहीं करता, जो व्यर्थ के तनाव नहीं लेता सिर पर, जो सहज है। 'जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता है, और जिसे शेष संसार विस्मृत हो गया है।' हो ही जाएगा। जिसे आत्मा का स्मरण होता है, उसे संसार का विस्मरण हो जाता है। और जिसे संसार का बहुत स्मरण हो जाता है, उसे आत्मा का विस्मरण हो जाता है। तुम दोनों को एक साथ न बचा सकोगे। रस्सी में सांप दिखा, जब तक सांप दिखेगा, रस्सी न दिखेगी। जब रस्सी दिखने लगेगी, सांप न दिखेगा। तुम ऐसा न कर सकोगे कि दोनों को एक-साथ देख लो। यह असंभव है। जब तक संसार में स्मरण उलझा है, तब तक आत्मा का स्मरण नहीं होता। जब आत्मा का
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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