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________________ विरोधी का शब्द है। उसमें तो छिपा ही है निंदा का भाव। कैसे छुटकारा हो? भवसागर, जाल-जंजाल कैसे मिटे? प्रपंच कैसे छूटे? । 'भवसागर से पार उतरकर परम आत्मा में लीन होने के लिए.।' अब यह परम आत्मा में लीन होना भी भक्त की भाषा नहीं है। भक्त परमात्मा में लीन होना चाहता है, आत्मा में नहीं। आत्मा तो अपनी है-परमात्मा, वह जो विराट है। भक्त तो अपनी बूंद को इस सिंधु में डुबाना चाहता है। भक्त की ऐसी क्षुद्र तलाश नहीं है। वह यह नहीं कहता है कि मैं कौन हूं। वह इतना ही कहता है कि मुझे डुबा ले| बस तुझमें हो जाऊं, काफी है। तो तुमने पूछ तो लिया है प्रश्न लेकिन तुम्हारे मन में ज्ञानियों ने बहु तकचरा भर दिया है। मैं तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुम भक्त हो जाओ तुमने पूछा है इसलिए उत्तर दे रहा हूं अगर भक्त होना है तो यह ज्ञानियों के कचरे को अलग कर दो। अगर यह ज्ञानियों के कचरे में तुम्हें मूल्य मालूम पड़ता है तो भक्ति का भाव छोड़ दो। ___ मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि ज्ञान के मार्ग से पहुंचना नहीं होता है ज्ञान के मार्ग से भी पहुंचना होता है। लेकिन तब भक्ति की बात ही भूल जाओ। दो नावों पर सवार मत होओ, अन्यथा डूबोगे, कहीं भी न पहुंचोगे| एक नाव काफी है। और जब मैं कहता हूं कि ज्ञानी के मार्ग से भी पहुंचनाहोता है तो खयाल रखना कि मेरे ज्ञानी में और तुम्हारे ज्ञानी में बड़ा फर्क है। तुम ज्ञानी उसको कहते हो, जो शास्त्र का ज्ञाता है। तम ज्ञानी उसको कहते हो, जो पंडित है, सिद्धांत में कुशल है। तुम ज्ञानी उसको कहते हो जिसके पास बहुत जानकारी है। मैं ज्ञानी उसे कहता हूं जिसने सब जानकारी फेंकी, सब शास्त्र हटाये। जिसने धीरे-धीरे जानकारी से अपनी दृष्टि हटाई और जानने के सूत्र पर लगाई। जो जागने लगा वही ज्ञानी है। ज्ञान में ज्ञान नहीं है, ध्यान में ज्ञान है। तो दो मार्ग हैं. ध्यान और प्रेम। प्रेम है भक्ति का मार्ग, ध्यान है शान का मार्ग। यह मैं तुम्हें स्पष्ट कर दूं। क्योंकि ज्ञानी से तुम कहीं यह मत समझ लेना कि कोई पंडित वेद को जाननेवाला है और ज्ञानी हो जाता है। जानकारी से कोई ज्ञान नहीं होता। जानकारी में अज्ञान दब जाता है, मिटता नहीं। और दबा हुआ अज्ञान बना रहता है। सदा बना रहेगा। छिपा रहेगा भीतर। उससे छुटकारा न होगा। तो बजाय ज्ञानी के ध्यानी कहना ज्यादा अच्छा है। तो ध्यानी और प्रेमी-दो मार्ग हैं। फर्क थोड़ा-सा है। ध्यानी आत्मा की खोज करता. मैं कौन हूं? इस एक सतत प्रश्न में उतरता है। प्रेमी इसकी फिक्र नहीं करता। वह कहता है, जो भी मैं हूं-अ, ब, स, जो भी मैं हूं प्रभु तेरे चरणों में ले ले। जो भी मैं हूं,अपने में डुबा ले। बुरा-भला जैसा हूं। गंदा नाला सही! अपने सागर में ले ले। तू तो सागर है, गंदा नाला भी उतरेगा तो स्वच्छ हो जायेगा। तू तो सागर है, गंदा नाला भी उतरेगा तो तेरे रूप में डूब जायेगा। मैं क्षुद्र तेरे विराट को तो अपवित्र न कर पाऊंगा, तेरा विराट मेरी क्षुद्रता को पवित्र कर देगा। इसलिए अब मैं कहा पवित्र होने को बैठा रहूं? और मेरे किये क्या होगा?
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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