SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दर्द की सरिता उफनती ढह रहे मन के कगारे मैं जिधर भी देखता हूं बेबसी आंचल पसारे आज निष्फल हो रहे हैं धैर्य के परितोष सारे धार का तृण बन गया हूं द्वार पर आकर तुम्हारे आंसुओ के पालने में पीर ने मुझको झुलाया याद के गीले करों ने थपकियां देकर सुलाया लोरियों के संग गाते दूध-मुंहें सपने बिचारे धूल का कण बन गया हूं द्वार पर आकर तुम्हारे मैं अकिंचन बन गया हूं द्वार पर आकर तुम्हारे जैसे-जैसे द्वार प्रभु का करीब आता वैसे ही वैसे व्यक्ति अकिंचन, नाकुछ। जिसको अष्टावक्र कहते हैं, 'न किंचन ।' जो जरा भी नहीं है, ऐसा व्यक्ति अकिंचन । किंचन का अर्थ होता है, जो थोड़ा-सा है; किंचित्। अकिंचन का अर्थ है, जो थोड़ा-सा भी नहीं है। रेखमात्र भी न बची। शून्यवत । मैं अकिंचन बन गया हूं द्वार पर आकर तुम्हारे धार का तृण बन गया हूं धूल का कण बन गया हूं द्वार पर आकर तुम्हारे द्वार पर आकर तुम्हारे जैसे धार में एक तिनका बहा जाता है। जैसे हवा के बवंडर में धूल का एक कण उड़ा जाता है। अष्टावक्र ने कहा, जिस दिन कोई सूखे पत्ते की भांति हो जाता है, हवा जहां ले जाये। ऐसी अकिंचनता में धन्यभाग। ऐसी अकिंचनता में, जहां सब कुछ खो गया वहीं सब कुछ मिलता है। समस्त धनों का धन! 'योगी को न स्वर्ग है, न नर्क है, और न जीवनमुक्ति ही है। इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन है? योगी को योगदृष्टि से कुछ भी नहीं है।' न स्वर्गों नैव नरको जीवन्तुक्तिर्न चैव हि । बहु नात्र किमुक्तेन योगदृष्टधा न किंचन । दो शब्द हैं : स्वर्ग और नर्क । ईसाइयत, यहूदी धर्म, इस्लाम इन दो शब्दों के आसपास बना है। भारत एक तीसरा शब्द खोजा, मोक्ष। मोक्ष के लिए पश्चिम की भाषाओं में कोई शब्द नहीं है। क्योंकि वह धारणा ही कभी पैदा नहीं हुई। इसलिए पश्चिम के धर्म प्राथमिक सीढ़ियों जैसे हैं। आखिरी शिखर तो पूरब में छुआ गया : मोक्ष। नर्क का तो अर्थ है दुख का ही विस्तार; वह हमारे अनुभव के भीतर है। और स्वर्ग का अर्थ है हमारे सुख का विस्तार, वह भी हमारे अनुभव के भीतर है। जीवन में हमने सब जाने हैं सुख-दुख । सुख एक तरफ छांट लिये, दुख एक तरफ छांट लिये, दोनों की राशियां लगा दीं, बन गये स्वर्ग-नर्क। स्वर्ग में हमने वह-वह बचा लिया है, जो हम चाहते हैं; और नर्क में वह वह डाल दिया है, जो हम
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy