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________________ कभी इसका प्रयोग करना। बीच बाजार में खड़े-खड़े खयाल करना कि बाहर हो। क्षण भर को झलक मिलेगी, झरोखा खुलेगा। एक लहर की तरह दौड़ जायेगी तुम्हारे जीवन में एक नई धारा। वही धारा एकांत में ले जायेगी। ठीक हो रहा है। जी घबड़ाता है, जी को भी छोड़ो। जी को पकड़ा तो जी भीड़ में ले जायेगा। जी भीड़ का गुलाम है, तुम्हारा नहीं। तुम्हारी इस पर कोई मालकियत नहीं है। यह तो बड़ी सूक्ष्म तरकीब है भीड़ की। उसने तुम्हारे मन को संस्कारित कर दिया है। वस्तुतः उसने जो-जो संस्कार तुम्हारे भीतर रख दिये हैं, उन्हीं के जोड़ का नाम मन है। इसे भी जाने दो। हिम्मत करो। पहला कदम उठाया, अब दूसरा भी उठाओ। दूसरा कदम यही होगा कि घबड़ाने दो जी को और तुम जानो कि मैं जी नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं, मैं पार हूं। धीरे-धीरे जैसे भीड़ से ऊब गये हो, ऐसे ही अपने मन से भी ऊब जाओगे। तब दूसरा एकांत पैदा होगा। तब तुम्हें बड़ी शांति मिलेगी। अपूर्व वर्षा हो जायेगी शांति की। जन्मों-जन्मों से जो प्राण प्यासे थे, तृप्त होंगे। मगर यहां भी रुक मत जाना, क्योंकि बहुत-से लोग शांति पर रुक जाते हैं। वे सोचते हैं, आ गया घर। शांति पड़ाव है, मंजिल नहीं। शांति सेतु है, अंत नहीं। अशांति से जाना है, शांति पर पहुंचना नहीं। अशांति से जाना है, शांति से होकर गुजरना है, आनंद पर पहुंचना है। जब तक आनंद न हो जाये...। शांति बड़ी मुर्दा-सी चीज है; अशांति के मुकाबले बड़ी कीमती। अगर अशांति और शांति में चुनना हो, शांति चुनना। लेकिन शांति भी कुछ चुनने जैसी बात है? अगर आनंद और शांति में चुनना हो तो आनंद चुनना। अभी एक और यात्रा बाकी है। दूसरों को तो छोड़ ही दिया, अब अपने को भी छोड़ दो। दूसरे को तो विस्मरण कर दिया, अब अपने को भी विस्मरण कर दो। इस आत्मविस्मरण में, इस अहंकार के त्याग में ही परम घटना घटेगी। तब तुम सुनोगे पहली बार उस बांसुरी को जो आदमी की नहीं है, जो परमात्मा की है। तब तुम पहली बार निमित्त बनोगे-परम ऊर्जा के वाहक! तुम्हारा रो-रोआं पुलकित होगा, उमंग से भरेगा। तब कैवल्य की दशा है। चल पड़े हो-रुकना मत, लौटना मत! 82 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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