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________________ टकराकर डूब गईं इच्छाओं की नावें लौट लौट आयी हैं मेरी सब झनकारें नेह फूल नाजुक न खिलना बंद हो जाये आने दो आंच रोशनी न मंद हो जाये क्या कुछ कमी थी मेरे भरपूर दान में ? या कुछ तुम्हारी नजर चूकी पहचान में या सब कुछ लीला थी तुम्हारे अनुमान में या मैंने भूल की तुम्हारी मुस्कान खोलो देहबंध, मन समाधि - सिंधु हो जाये आने दो आंच रोशनी न मंद हो जाये हम बड़े डरे हैं। हम बड़े भयभीत हैं। हम जल्दी मुट्ठी बांध लेना चाहते हैं। हमारा मन बड़ा आतुर है, अशांत है— जल्दी हो । और कहीं ऐसा न हो कि हम खोजते ही रह जायें, मिलना ही न हो और यह जीवन खो जाये । कहीं ऐसा न हो कि हम राह की धूल में ही दबे रह जायें और तेरे द्वार तक कभी पहुंच ही न पायें। कहीं ऐसा न हो कि हम भटकते ही रहें चांद-तारों में और तेरा घर ही न मिले। हमारी परमात्मा को देखने की मौलिक दृष्टि भ्रांत है। परमात्मा कहीं और है जहां हमें पहुंचना है, इसमें ही भूल हो रही है। परमात्मा यहां है, अभी है, यहीं है; कहीं और नहीं। यह हमारा ध्यान — 'कहीं और हमें चूका रहा है। परमात्मा यहां है, अभी है, यहीं है। चारों ओर घना है। उसी की रोशनी है। उसी की छाया है। उसी के हरे वृक्ष हैं। उसी के नदी- झरने हैं । उसी के पर्वत-पहाड़ हैं। वही झांक रहा तुम्हारी आंखों से । वही बोलता मुझमें, वही सुनता तुममें। कहीं दूर नहीं है, कहीं पार नहीं है, कहीं और नहीं है; यहीं है, अभी है। तुम जागो। डूबो इस रस में। इस उत्सव को भोगो । और प्रतिपल क्षुद्र में भी उसे देखो। भोजन करो तो याद रखो, अन्नं ब्रह्म । पानी पीयो, याद रखो, झरने सर - सरितायें सब उसकी हैं। कंठ में तृप्ति हो, याद रखो वही तृप्त हुआ। गले मिलो प्रियजन के, स्मरण रखो वही आलिंगन कर रहा। ऐसे दूर मंजिल की तरह देखोगे तो दुखी होओगे, परेशान होओगे। और उस परेशानी में जो मौजूद है चारों तरफ, उससे चूकते चले जाओगे। फिर दोहराता हूं - परमात्मा मंजिल नहीं, मार्ग है; गंतव्य नहीं, गति है; आखिरी पड़ाव नहीं, सभी पड़ाव उसके हैं। आखिरी कोई पड़ाव ही नहीं है। यात्रा ही यात्रा है। अनंत यात्रा है। 46 खुलता है हरेक रहस्य का दरवाजा दूसरे रहस्य में प्रत्येक वर्तमान की इति है अशेष भविष्य में और हर रहस्य का दरवाजा खोलकर जब तुम गहरे उतरोगे, फिर पाओगे नया एक दरवाजा। एक पहाड़ के उत्तुंग शिखर को लांघोगे, सोचोगे आ गये घर, अब और चलना नहीं; पहुंचोगे शिखर पर, पाओगे और बड़ा शिखर प्रतीक्षा कर रहा है । और बड़े शिखर की पुकार आ गई। अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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