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________________ और तुम चकित होओगे, अगर तुम पश्चात्ताप छोड़ दो तो दुबारा क्रोध न कर सकोगे। क्योंकि पश्चात्ताप अगर छोड़ दो तो तुम दुबारा संत और साधुपुरुष न हो सकोगे। तुम जानोगे मैं बुरा आदमी हूं, क्रोध मुझसे होता है। यह बड़ा भारी अनुभव होगा। तुम धोखा न दे सकोगे अपने को। तुम जाकर अपने मित्रों को कह दोगे कि भाई, मैं बुरा आदमी हूं, कभी-कभी गाली भी देता हूं - बावजूद नहीं, मुझसे ही होती है; निकलती है। क्षमा क्या मांगूं ? आदमी बुरा हूं। तुम सोच-समझकर ही मुझसे संबंध बनाओ। तुम जाकर घोषणा कर दोगे वृहत संसार में कि मैं बुरा आदमी हूं, मुझसे जरा सावधान रहो। दोस्ती मत बनाना, कभी न कभी बुरा करूंगा। काटूंगा। काटना मेरी आदत है। अगर तुम ऐसी घोषणा कर सको तो देखते हो कैसी क्रांति घटित न हो जाये ! तुम्हारा अहंकार तुमने खंडित कर दिया। क्रोध तो अहंकार से उठता है । जितना तुम्हारा अहंकार चला जाये उतना ही क्रोध नहीं उठता। और पश्चात्ताप अहंकार को मजबूत करता है । इसलिए पश्चात्ताप से कभी किसी का क्रोध नहीं जाता । बुद्ध ने उस आदमी को कहा, तू पश्चात्ताप छोड़। जैसा मैंने छोड़ दिया, तू भी छोड़। न मैंने गांठ बांधी, न तू बांध। जो हुआ, हुआ । अब क्या लेना-देना? अतीत तो जा चुका, अब उसे क्या खींचना ! स्नान कर ले! यह धूल-धवांस धो डाल । राह की यह धूल अब ढोनी ठीक नहीं । अगर तुम समझो तो ध्यान का यही अर्थ होता है : स्नान । रोज-रोज ध्यान कर लो, अर्थात रोज-रोज स्नान कर लो ताकि जो धूल जम गई है वह बह जाये। जैसे शरीर पर जमी धूल स्नान से बह जाती है ऐसे मन पर जमी धूल ध्यान से बह जाती है। तुम फिर ताजे हो गये, फिर बालवत हो गये । तो बच्चा निर्दोष है। ज्ञानी निर्दोष है। 'जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम और बालवत व्यवहार करता है, उस शुद्ध चित्त के किए हुए कर्म भी उसे लिप्त नहीं करते हैं। ' फिर कर्म भी करता है, लेकिन कर्ता तो रहा नहीं इसलिए किसी कर्म से कोई लेप नहीं लगता । किसी कर्म के कारण लिप्त नहीं होता। यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है। तुमने शब्द सुना है, कर्मबंध । लेकिन अगर ठीक से समझो तो वह शब्द ठीक नहीं है। क्योंकि कर्म से कोई बंध नहीं होता, बंध होता है कामना से । कर्म से बंध नहीं होता। अन्यथा कृष्ण अर्जुन से कहते कि तू उतर युद्ध में, कर कर्म । नहीं कहते, अगर कर्म से बंध होता । नहीं, काम से बंध होता । तो कहा, फलाकांक्षा छोड़ दे फिर उतर । तूने फलाकांक्षा छोड़ दी तो तू उतरा ही नहीं, परमात्मा ही उतरा। और वही अष्टावक्र कहते हैं । और भी गहराई से कहते हैं: सर्वारंभेषु निष्कामो। हर काम के प्रारंभ में कामना न हो इतना ध्यान रहे । कर्म चलने दो। कर्म तो जीवन का स्वभाव है। कर्म तो रुकेगा नहीं। कर्म की यात्रा होती रहे। लेकिन तुम? तुम भीतर से शून्य हो जाओ। तुम मत करो, होने दो। कर्म से कोई नहीं बंधता, कामना में बंधन है। इसलिए कर्मबंध से ज्यादा ठीक शब्द है, कामबंध । बुद्ध भी कर्म करते हैं ज्ञानी हो जाने के बाद; चालीस वर्ष तक कर्म किया । महावीर भी कर्म करते मन का निस्तरण 391
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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