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________________ वह गंध मेरे मन बस गई रे एक दिन पश्चिम एक दिन परब भटक रहे हैं गंध पंख सब रोम-रोम के द्वार खोलकर वह अंतर में धंस गई रे वह गंध मेरे मन बस गई रे नभ में जिसकी डालें अटकी थल पर जिसकी कलियां चटकी मेरे जीवन के कर्दम में वह अनजाने फंस गई रे वह गंध मेरे मन बस गई रे जब तक सदगुरु की गंध तुम्हारे मन में न बस जाये, जब तक तुम दीवाने न हो जाओ, तब तक कुछ भी न होगा। सदगुरु और शिष्य का संबंध रागात्मक है। वह वैसा ही संबंध है जैसे प्रेमी और प्रेयसी का। निश्चित ही प्रेमी और प्रेयसी के संबंध से बहुत पार। लेकिन उसी से केवल तुलना दी जा • सकती है, और कोई तुलना नहीं है। दीवानगी का संबंध है। रोम-रोम के द्वार खोलकर वह अंतर में धंस गई रे वह गंध मेरे मन बस गई रे तो ही कुछ रूपांतरित होता है। तुम बदलोगे तभी, जब तुम प्रेम में झुकोगे। मनोवैज्ञानिक के पास झुकना आवश्यक नहीं है। झुकने का कोई सवाल नहीं है, मनोवैज्ञानिक तकनीशियन है। मनोवैज्ञानिक के प्रति समर्पण का कोई प्रश्न नहीं है। मनोवैज्ञानिक कुछ जानता है, उसके जानने के तुम दाम चुका देते हो, बात खतम हो गई। धन्यवाद देने की भी आवश्यकता नहीं है। सदगुरु कुछ जानता है, ऐसा नहीं, सदगुरु कुछ हो गया है। सदगुरु के आंगन में आकाश उतरा है। सदगुरु के सूने अंतरात्मा के सिंहासन पर प्रभु विराजमान हुआ है। यहां कंजूसी से न चल सकेगा। यहां तो उछलकर डुबकी ले सकोगे तो ही कुछ हो सकेगा। इसलिए पश्चिम ने तो अब मनोवैज्ञानिक को भी गुरु कहना शुरू कर दिया है। पूरब ने कभी गुरु को मनोवैज्ञानिक नहीं कहा। और पूरब को कभी मनोवैज्ञानिक को जन्म देने की जरूरत नहीं पड़ी। जहां गुरु हो वहां मनोवैज्ञानिक की कोई खास जरूरत नहीं है। मनोवैज्ञानिक तो एक परिपूरक, सस्ता परिपूरक है। मनोवैज्ञानिक खुद उन उलझनों में उलझा है जिन उलझनों से वह मरीज को मुक्त करवाने की कोशिश कर रहा है। सदगुरु उन उलझनों के पार है। और जो पार है उसका ही सत्संग काम आ सकता है। सदगुरु व्यक्ति नहीं है। इसलिए पूरब के मनीषी सदगुरु को परमात्मा कहते हैं, उसे ब्रह्मस्वरूप अवनी पर आकाश गा रहा 361
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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