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________________ बता जाये तब खोजना सदगुरु को । जब तुम्हारी बुद्धिमानी बुद्धूपन सिद्ध हो जाये तब खोजना सदगुरु को। सदगुरु के पास जाना ही तब, जब यह जीवन व्यर्थ मालूम होने लगे । तो वह किसी और जीवन की तरफ तुम्हें ले चले। किसी नये आयाम की यात्रा कराये। मनोवैज्ञानिक के पास तुम जाते हो तो तुम्हारा संबंध वही है जो तुम चिकित्सक के पास जाते हो। चिकित्सक तुम्हारा गुरु नहीं है। तुम्हारे पैर में चोट लग गई है, तुम डाक्टर के पास गये, उसने मलहम पट्टी कर । डाक्टर तुम्हारा गुरु नहीं है। गुरु एक प्रेम का संबंध है । अपूर्व प्रेम का संबंध है। । गुरु इस जगत में सबसे गहन प्रेम का संबंध है। उसने तुम्हारे पैर पर मलहम पट्टी कर दी, तुमने उसकी फीस चुका दी, बात खतम हो गई। गुरु से जो नाता है वह हार्दिक है। तुम कुछ' भी चुकाकर गुरु-ऋण चुका न पाओगे। जब तक कि तुम उस अवस्था में न आ जाओ, जहां तुम्हारे भीतर छिपा गुरु प्रगट हो जाये तब तक गुरु-ऋण नहीं चुकेगा। तो गुरु का संबंध कुछ किसी और दिशा से है । तुम्हारे हृदय में एक उमंग उठती है । किसी के पास होकर तुम्हें झलक मिलती है परम सत्य की। कोई तुम्हारे लिए झरोखा बन जाता। किसी के पास रहकर तुम्हें संगीत सुनाई पड़ता शाश्वत का । तुम्हारे मन में बड़ा शोरगुल है लेकिन फिर भी किसी के पास क्षण भर को तुम्हारा मन ठहर जाता और शाश्वत को जगह मिलती । किसी के पास तुम्हें स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं दूर के, पार के, तारों के पार से जो आते हैं । और किसी की मौजूदगी में तुम्हारे भीतर कुछ उठने लगता, कुछ सोया जागने लगता । सदगुरु केलिटिक एजेंट है। उसकी मौजूदगी में कुछ घटता है । सदगुरु कुछ करता नहीं है, मनोवैज्ञानिक कुछ करता है। मनोवैज्ञानिक तकनीशियन है। सदगुरु कुछ करता नहीं, उसकी मौजूदगी में कुछ होता है। सदगुरु करता तो है ही नहीं, क्योंकि कर्ता छोड़कर ही तो वह सदगुरु हुआ है। उसने प्रभु को कर्ता बना लिया है, खुद तो शून्य हो गया है, निमित्तमात्र । बांस की पोली बांसुरी हो गया है। अब सदगुरु कुछ करता नहीं लेकिन उसके पास महत घटता है, बहुत कुछ होता है। सदगुरु को मनोवैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता। पहली बात, सदगुरु वैज्ञानिक नहीं है। अगर सदगुरु कुछ है तो शायद शाश्वत का कवि है। शायद तुकबंदी न भी करता हो, शायद छंद में बांधता भी न हो कुछ, शायद शब्दों और व्याकरण का धनी भी न हो, शायद मात्राओं का उसे बोध भी न हो लेकिन फिर भी सदगुरु शाश्वत का कवि है। इसलिए तो हमने सदगुरुओं को ऋषि कहा है। ऋषि का अर्थ होता है, कवि । उन्होंने जो भी कहा है वह खुद नहीं कहा है, परमात्मा उनसे बोला है। इसलिए तो हमने वेदों को अपौरुषेय कहा है। पुरुष के द्वारा निर्मित नहीं। इसलिए तो कहा है कि कुरान उतरी। मोहम्मद ने रची नहीं, उन पर उतरी; इलहाम हुआ। इसलिए तो जीसस कहते हैं कि मैं नहीं बोलता, मेरे भीतर प्रभु बोलता है। ये वचन मेरे नहीं हैं। सदगुरु शाश्वत की बांसुरी है । और तुम उसके प्रेम में पड़ जाओ, गहन प्रेम में पड़ जाओ, तर्क इत्यादि छोड़कर उसके प्रेम में पड़ जाओ तो ही कुछ घटेगा । मनोवैज्ञानिक के पास तुम्हें प्रेम में पड़ने की जरूरत नहीं है। सच तो यह है, तुम चकित होओगे जानकर कि फ्रायड, एडलर, जुंग और उनके पीछे आनेवाले मनोवैज्ञानिकों की लंबी कतार कहती है कि मरीज अगर प्रेम में पड़ने लगे तो मनोवैज्ञानिक उसे रोके । इसे वे कहते हैं ट्रांसफरेंस। अगर मरीज अवनी पर आकाश गा रहा 359
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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