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________________ लगता हो किनारे पर खड़े होकर कि क्षुब्ध है। वह तुम्हारी गलती है । वह सागर का वक्तव्य नहीं है, वह तुम्हारी व्याख्या है। सागर तो परम शांत है। ये लहरें उसकी शांति की ही लहरें हैं। इन लहरों में भी शांत है। इन लहरों के पीछे भी अपूर्व अखंड गहराई है। ये लहरें उसकी शांति के विपरीत नहीं हैं। इन लहरों का शांति में समन्वय है। जीवन वहीं गहरा होता है जहां विरोधी को भी आत्मसात कर लेता है। इसे खूब खयाल में रखना । जहां विरोध छूट जाता है वहां जीवन अपंग जाता है। जहां विरोध कट जाता है वहां जीवन दुर्बल हो जाता है। जहां विरोध को तुम बिलकुल अलग काटकर फेंक देते हो वहीं तुम दरिद्र और दीन हो जाते हो। जीवन की महत्ता, जीवन का सौरभ, जीवन की समृद्धि विरोध में है। जहां विरोधों की मौजूदगी में संगीत पैदा होता है, बस वहीं विपरीत से भागना मत, विपरीत का अतिक्रमण करना । भगोड़े मत बनना । सागर अगर लहरों से भाग जाये तो क्या होगा ? जा सकता है भागकर हिमालय । जम जाये बर्फ की तरह, फिर लहरें नहीं उठतीं। बर्फ की तरह जमा हुआ तुम्हारा संन्यास अब तक रहा है। बर्फ की तरह जमा हुआ, मुर्दा । कोई गति नहीं, कोई तरंग नहीं, कोई संगीत नहीं। ठंडा। कोई ऊष्मा नहीं, कोई प्रेम नहीं । निर्जीव ! होना चाहिए महासागर की तरह तुम्हारा संन्यास । नाचता हुआ ! आकाश को छूने की अभीप्सा से भरा । उत्तुंग लहरोंवाला और फिर भी शांत । इसलिए यह अदभुत वचन है। 'मूढ़ पुरुष का वैराग्य विशेष कर परिग्रह में देखा जाता है। लेकिन देह में गलित हो गई है आशा जिसकी, ऐसे ज्ञानी को कहां राग है, कहां वैराग्य !' यह सूत्र भी बड़ा अनूठा है। परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढ़स्य दृश्यते । देहे विगलिताशस्य क्व रागः क्व विरागता । । अनूठा है सूत्र । परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढ़स्य दृश्यते । 'मूढ़ का जो वैराग्य है वह परिग्रहकेंद्रित होता है।' समझो । मूढ़ का जो वैराग्य है वह परिग्रह से ही निकलता है, परिग्रह के विपरीत निकलता है। वह कहता है, धन छोड़ो। पहले धन पकड़ता था, अब कहता है धन छोड़ो। मगर धन पर नजर अटकी है। पहले दीवाना था, कांचन...कांचन... कांचन । सोना... सोना... सोना... सोना । सोने में सोया था। अब कहता है, जाग गया हूं लेकिन अब भी सोने की ही बातें करता है । कहता है सोना छोड़ो, कांचन छोड़ो। यह छोड़ने में भी पकड़ जारी है। अभी छूटी नहीं है बात। यह कहता है सोना मिट्टी | लेकिन अगर मिट्टी ही है तो मिट्टी को क्यों मिट्टी नहीं कहते ? सोने को क्यों ? बात खतम हो गई। I मैंने सुना है, महाराष्ट्र की बड़ी प्राचीन कथा है रांका-बांका की । रांका ठीक वैसा ही रहा होगा, जिसका संन्यास परिग्रह के विपरीत निकला। तो वह लकड़ियां काटता, बेचता, उससे जो मिल जाता उससे भोजन कर लेता। सांझ जो बचता वह बांट देता, रात घर में न रखता । परम त्यागी। लेकिन एक बार बेमौसम वर्षा हो गई। तीन चार दिन वर्षा होती रही। जंगल न जा सका। भूखे रहना पड़ा। उसकी मृढ़ कौन, अमूढ़ कौन ! 343
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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