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________________ पहले तुम बाहर अतृप्त थे तो भीतर तृप्ति थी। संसारी आदमी को भीतर कोई अतृप्ति होती ही नहीं। वह कभी सोचता ही नहीं कि आत्मा मिले, कि और आत्मा मिले, कि सत्य मिले कि और सत्य मिले। वह तो जो लोग सत्य इत्यादि की बात करते हैं, वह बड़ा चौंकता है, इनको हो क्या गया? पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक जान विसडम ने अपने एक वक्तव्य में कहा है कि जो आदमी भी दर्शनशास्त्र और धर्मशास्त्र के प्रश्न उठाये, समझो कि इसका दिमाग खराब हो गया है। कल मैं उनका वक्तव्य पढ रहा था। मजेदार वक्तव्य है। और उनका नाम है जान विसडम। ऐसा बुद्धिहीन वक्तव्य दिया है। कहा है कि उसका दिमाग खराब हो गया है और उसे समझाने-बुझाने की बजाय मनो-चिकित्सालय में ले जाकर इलाज करना चाहिए। __ ऐसा लगता है ठीक ही है। ऐसा अधिक लोगों को लगता है। अब जो आदमी धन के पीछे दौड़ रहा है उसे तुम कहो कि मुझे तो आत्मा पानी है। तो वह कहेगा कि होश ठीक है? कहां के चक्कर में पड़ रहे हो? दिमाग खराब हो गया? यह छोड़ो पागलों के लिए। सुध-बुध में आओ, व्यावहारिक बनो। यह क्या कर रहे हो? ____ या तुम कहो कि मुझे तो ईश्वर खोजना है तो लोग हंसेंगे। कि मैं तो ईश्वर के दर्शन पाकर रहूंगा। तुम रोने-गाने लगो तो उनको बड़ी चिंता पैदा होगी कि अब क्या करना? इलाज करवाना या क्या करना! अब ईश्वर कैसे मिलता है? सीधी-सीधी बातें करो कि दिल्ली जाना है। चुनाव करीब आ रहे हैं, दिल्ली जाओ। चुनाव लड़ लो, मिनिस्टर बनो, चीफ मिनिस्टर बनो, प्राईम मिनिस्टर बनो, राष्ट्रपति बन जाओ। इतना सब कुछ पड़ा है फैलाव, तुम कहां की ईश्वर की बातें कर रहे हो? किसने देखा? किसने सुना? यह तुम पागलों के लिए छोड़ दो। .. तो जब तुम्हारी अतृप्ति बाहर लगी होती है तो भीतर तुम तृप्त होते हो। भीतर की तुम्हें चिंता ही नहीं होती। भीतर कोई उपद्रव ही नहीं होता। फिर तुमने बदला। संक्रांति का क्षण। __ संन्यास यानी संक्रांति। संन्यास यानी तुमने सारा रूप बदला। तुमने कहा, अब भीतर चलें। देख लिया बाहरं, नहीं कुछ पाया। या जो पाया, व्यर्थ था। जिसको धन समझा, कूड़ा-करकट हुआ; जिसको प्रेम समझा वह सिर्फ मन की कल्पनाओं का जाल था, सपने थे। टूट गये सपने। तुम बाहर से ऊबे, तुम भीतर आये। लेकिन हुआ क्या, अब जो अतृप्ति बाहर लगी थी वह भीतर लग गई। अब तुम कहते, और ध्यान, और ध्यान...और समाधि। इसके भी आगे-परमात्मा मिले, मोक्ष मिले, निर्वाण मिले। और आगे क्या है? अब तुम दौड़े। अब तुम बड़े मकान भीतर बनाने लगे। अब भीतर तुम्हें तृप्ति नहीं है। बाहर अब तृप्ति है। तुम कहते हो, बाहर अब तृप्ति है। कल तक बाहर तृप्ति नहीं थी। और बाहर की स्थिति अभी भी पहले जैसी है, संन्यास लेने से थोड़ी बिगड़ भला गई हो, सुधर तो नहीं सकती। बाहर की स्थिति अब भी पहले जैसी है, लेकिन बाहर तृप्ति है। तुम थोड़ा समझो। स्थिति से तृप्ति का कोई संबंध नहीं है। क्योंकि बाहर सब वैसे का वैसा है। वही पत्नी है, वही घर है, वही नौकरी है, वही दूकानदारी है—शायद पहले से कुछ अस्तव्यस्त हो गई हो। क्योंकि अब यह नया जो काम शुरू हुआ है, यह भी तो शक्ति लेगा न! तो ग्राहक कम आते हों। बचपन में मैं अपने पिता की दूकान पर बैठता था। तो मेरे काका हैं, वे कवि हैं, तो मैं बड़ा हैरान सदगुरुओं के अनूठे ढंग 311
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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