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________________ करता है तो वह मार्ग की आलोचना कर रहा है। तुम इतना ही उसमें समझने की कोशिश करना कि मुझे क्या ठीक लगता है। ऐसा हुआ, एक नगर में दो हलवाइयों में झगड़ा हो गया । आमने-सामने दूकान थी । हलवाई तो हलवाई ! लड्डू और बर्फी एक-दूसरे पर फेंकने लगे। लूट मच गई। लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई। लोग लड्डू और बर्फियां बीच में पकड़ने लगे। और लोग बोले कि ऐसी लड़ाई तो रोज हो । मजा आ गया। दो हलवाई लड़ेंगे, तुम लड्डु-बर्फी पकड़ लेना । तुम इसकी फिक्र छोड़ना कि हलवाई लड़ रहे हैं। वे शायद इसीलिए लड़ रहे हैं कि तुम्हें थोड़े लड्डू और बर्फियां मिल जायें। फिर सत्य को देखने के इतने कोण हैं...। एक तो सत्य को देखने का परंपरागत कोण है, जैसा शास्त्रों में कहा है, परंपरा में कहा है, संप्रदाय में कहा है। एक कोण है सत्य को देखने का, निजी अनुभव से। दोनों ही तरह के लोग दुनिया में हुए हैं, सदा हुए हैं। महावीर, उनके पहले जो तेईस तीर्थंकरों ने कहा था, उसी परिभाषा के भीतर सत्य को देख रहे हैं । बुद्ध एक नई परंपरा शुरू कर रहे हैं। संघर्ष स्वाभाविक है । बुद्ध एक नई भाषा को जन्म दे रहे हैं। महावीर पुरानी मान्य भाषा के भीतर अपने अनुभव को ढाल रहे हैं। वैसा भी ढाला जा सकता है। कोई जरूरी नहीं है कि तुम्हें जब कोई नया अनुभव हो तो तुम नई भाषा भी बनाओ । भाषा तो पुरानी काम में लायी जा सकती है। अनुभव तो सत्य का सदा नया है । लेकिन कोई परंपरागत भाषा का उपयोग करता है, कोई नई भाषा ढालता है । यह भी निर्भर करता है व्यक्तियों के ऊपर । बुद्ध ने नई भाषा ढाली । एक नई परंपरा का जन्म हुआ। अब यह तुम सोचो। कोई पुरानी परंपरा में अपने नये सत्य के अनुभव को ढाल देता है । कोई अपने नये सत्य के अनुभव में नई भाषा को निर्मित करता है और एक नई परंपरा को जन्म दे देता है। एक में परंपरा पहले है, दूसरे में परंपरा पीछे है । संयोजन का भेद है। महावीर के पीछे परंपरा है, बुद्ध के आगे; मगर परंपरा कहीं जाती थोड़े ही ! सब क्रांतियां परंपरायें बन जाती हैं। और सब परंपरायें पुनः राख को झाड़ दो तो क्रांतियां बन सकती हैं। परंपरा और क्रांति कोई दो अलग चीजें थोड़े ही हैं; एक ही चीज के दो पहलू हैं। कृष्णमूर्ति ने चुना है नये ढंग से कहना। ठीक है, सुंदर है। रमण ने चुना पुराने ढंग से कहना । अपना-अपना चुनाव है । और कोई का चुनाव किसी के ऊपर थोपा नहीं जा सकता। रमण ने भी खूब गहराई से कहा; पुराने ढंग से कहा । पुराने शब्दों की राख झाड़ दी, फिर अंगारे प्रगट हो गये ! अंगारे मरते थोड़े ही हैं। जहां भी सत्य कभी रहा है, वहां सत्य है। राख जम जाती है समय के कारण । धूल इकट्ठी हो जाती है। धूल झाड़ दो। रमण ने पुराने अंगारों पर से धूल झाड़ दी, कृष्णमूर्ति नया अंगारा पैदा करते हैं। लेकिन नये अंगारे पर भी धूल जमेगी। चालीस साल से कृष्णमूर्ति बोल रहे हैं, चालीस साल में कृष्णमूर्ति को मानने वाले लोग कृष्णमूर्ति के शब्दों को दोहराने लगे। धूल जमने लगी। संप्रदाय बनने लगा । लाख तुम कहो, कृष्णमूर्ति कितना ही कहें लोगों को कि तुम मेरे अनुयायी नहीं हो, लेकिन क्या फर्क पड़ता है ? इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। लोग इसको भी मानते हैं। लोग ऐसे अनुयायी हैं कि वे कहते हैं, आप ठीक कह रहे हैं । यही तो हम भी मानते हैं । सदगुरुओं के अनूठे ढंग 301
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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